रविवार, 17 जनवरी 2010

संदूक


आज...
फ़िर,
....
....
उस,
कोने में पड़े,
धूल लगे 'संदूक' को,
हाथों से झाड़ा...

धूल...
...आंखों में चुभ गई .

संदूक का,
कोई 'नाम' नहीं होता.

पर,
इस संदूक में,
एक खुरचा सा 'नाम' था .
....
....
सफ़ेद पेंट से लिखा .

तुम्हारा था?
या मेरा?
पढ़ा नही जाता है अब .

खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही,
बेतरतीब पड़ी थी...
'ज़िन्दगी'

मुझे याद है,
माँ ने,
जन्म दिन में,
'उपहार' में दी थी।

पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है !

पर,
आज भी ,
जब पहन के देखता हूँ,
बड़ी ही लगती है,

शायद...
...कभी फिट आ जाए।

नीचे उसके,
तह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन'

उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख,
कागज़ के रंग,
कुछ कंचे ,
उलझा हुआ मंझा,
और...
....
....
और न जाने क्या क्या ?

कपड़े,
छोटे होते थे बचपन में,
....
....
....जेब बड़ी.

कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये
'इमानदारी',
सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी 'मुफलिसी' के,
और कभी,
'बेचारगी' के .

पर,
इसकी सिलाई,
....
....
उधड गई थी, एक दिन.
...जब,
'भूख' का खूंटा लगा इसमे.

उसको हटाया,
तो नीचे...
पड़ी हुई थी,
'जवानी'.

उसका रंग उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये .

अब पता नहीं ,
कौनसा,
नया रंग हो गया है?

बगल में ही,
पड़ी हुई थी,
'आवारगी'.

....उसमें से,
अब भी,
'शराब' की बू आती है।

४-५,
सफ़ेद,
गोल,
'खुशियों' की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,
संदूक में.

पर वो खुशियाँ...
....
....
.... उड़ गई शायद।

याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था ?

एक जोड़ी,
'वफाएं' खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर,
मुझपे...
.....
.....
ये अच्छी नही लगती।

और फ़िर...
इनका 'फैशन' भी,
...नहीं रहा अब .

...और ये,
शायद...
'मुस्कान' है।

तुम,
कहती थी न...
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी,
दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
....
....
इसको.....
'जमाने'
और
'जिम्मेदारियों'
के बीच रख दिया था ना ।

तब से पेहेनना छोड़ दी।

अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'
'वेल्लेनटें डे ' में,
दिया था तुमने।

दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में,
सिकुड़ जाता था।
भाभी ने बताया भी था,
"इसके लिए,
खारा पानी ख़राब होता है."

पर आखें,
आँखें  ये न जानती थी।

चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल साफ़,
नाप भी बिल्कुल सही.

लगता था,
जैसे,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से
कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर .

चलो,
आज...
फ़िर,
....
....
इसे ही,
पहन लेता हूँ .

48 टिप्‍पणियां:

  1. सारा जीवन उंढ़ेल दिया आप ने इस कविता में।

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  2. ओह बहुत ही सुन्दर रचना !!!

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  3. बेहतरीन रचना के साथ ब्लॉगिन्ग की सालगिरह मुबारक हो. अनेक शुभकामनाएँ.

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  4. मेरा बचवा,
    कितने दिनों बाद आज तुम्हारे ब्लॉग पर अपनी पसंद की कविता देख कर कितनी ख़ुशी हुई बता नहीं सकते हम...
    ये वही कविता है जिसे रोज-रोज पढना कितना अच्छा लगता है...
    अच्छा किया फिर से डाल दिया...
    और हाँ ..ब्लागगिंग की सालगिरह की बधाई...

    aDaDi..

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  5. संदूक के किसी कोने में आपको वो अपनापन,प्यार और ख़ुशी भी मिली होगी जो आज की जिंदगी से नदारद है...ब्लॉगिन्ग की सालगिरह मुबारक हो.....DIL SE..

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  6. सालगिरह की मुबारकबाद, पुरानी मगर नयी सी और बढ़िया अभिव्यक्ति
    :-)

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  7. salgirah ki badhaayee aur mubarkabaad, shayad main tumhe agar tarpan naa kahun to sandook jarur kahunga... :)

    tum lekhan ki duniya me isi nazm se jane jawoge.. :)

    aur tumhara contact no. nahi lag rahaa ?????????


    arsh

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  8. जैसे,
    आज के लिए ही खरीदी थी,
    उस 'वक्त' के बजाज से
    कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर .

    दर्पण तुम्हारा पहले लिखी सम्दूक वाली रचना पढ कर ही स्तब्ध रह गयी थी और उस दिन से ही तुम्हें जाना था। मगर आज इस रचना के सफर तक एक साल मे तुम्हारी कलम ने इतना कमाल कुया है कि सोच रही हूँ स्तब्ध के बाद भी कोई शब्द है जो इस रचना के बारे मे कह सकूँ? मुझे लगता है आज तक सभी ब्लाग्ज़ पर जितनी भी कवितायें पढी हैं उन मे सब से श्रेष्ठ रचना है ये । ब्लाग की साल गिरह पर बहुत बहुत बधाई। उम्र के इस आर्म्भिक पडाव मे ही तुममे अद्भुत शब्द शिल्प और संवेदनायें सहेजने की क्षमता है। आशीर्वाद

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  9. देखा,
    'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
    बिल्कुल साफ ।

    बहुत ही अनुपम प्रस्‍तुति, शुभकामनाओं के साथ बधाई ।

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  10. शानदार ..ओर दर्शाना अंदाज........क़त्ल !

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  11. darpan

    stabdh hun..........aur aankhon mein aansuon ka sailaab hai........abhi kuch nhi kah paungi.

    blogging ki salgirah ki hardik shubhkamnayein.
    tumhare sath hi mere blog zindagi par bhi shatak lag gaya hai.

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  12. किसी रनिंग कमेंट्री की तरह पूरा लेखा जोखा , बहुत अच्छा , ब्लागिंग की सालगिरह मुबारक हो

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  13. ओह मुझे नही पता कि इससे बेहतर रचना मैंने ब्लॉग पर पढ़ी है..अभी कई बार आऊँगा..

    भाव-विह्वल हूँ आपको फिर लिखता देखकर..!
    शुभकामनायें..!
    क्या वापसी की है गुरु..!

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  14. ब्लागिरी की सालगिरह मुबारक..पर पुरानी रचनाएं कहाँ हैं..?
    यूँ धोखा ना देना भैया..हम भी छोड़ेंगे नही...:)

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  15. गजब का लेखन। पढते वक्त एक अलग सा अनुभव हुआ। ब्लोग की सालगिरह पर ढेर सारी शुभकामनाएं।

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  16. darpan ji
    apko badhai dene ke bajaye mai apki blogging ki salgirh per her padhak ko badai dena chahungi. aap sabhi ko badhai itni sunder rachaye padh pane ke liye.

    kai dino apki nai kavita ka intjar ho raha tha, itni adbhut hogi yah to socha hi nahi tha. nishabd ker dete hai aap.
    blogging me maine to kabhi itni sunder rachana nahi padi ab tak.
    ab swayam ko badhai de rahi blogging se jude rahne ki.

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  17. सब से पहले इसी कविताके बहाने आई थी तुम्हारे ब्लॉग पर....! और पता चला था कि एक छोटी उम्र का लड़का बड़ी बड़ी बातें लिखता है....!

    वो लड़का इसी ब्लॉग से, इसी तरह, साल दर साल यूँ ही लंबी लंबी बातें लिखता रहे...!!

    उम्मीद है बड़ी बहन के आशीर्वाद का मान रखा जायेगा...!

    GOD BLESS YOU

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  18. उफ़्फ़ इन शब्दों की ऐसी परिभाषा कहां किसी ने अब तक गढी,
    हो सकता हो लिखा हो पहले भी किसी ने मैंने तो अभी पढी ॥

    क्या कहूं जी क्या क्या लिख दिया आपने दो बार पढ चुका हूं....अभी तो ..और भी .....

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  19. आप लौटे ..
    यह भी एक कविता जैसा रहा ..
    जैसे संदूक से गायब वही प्यारा सा कपडा कहीं खो
    कर फिर मिल गया हो ..
    श्रीश जी की दरख्वास्त पर गौर किया जाय और
    सारा रिकार्ड हाजिर किया जाय , हम
    जैसों के निमित्त ..
    कविता पर अलग से क्या कहा जाय ..
    ................ आभार ,,,

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  20. खुशामदीद....और "संदूक" से बेहतर जरिया और कुछ नहीं हो सकता था।

    i m always there come what may.

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  21. Welcome Back to Bloging ....... and best wishes for one year .....

    धमाकेदार रचना के लिए आभार ..........

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  22. इस संदूक में तो आपने बहुत बड़ा खजाना छुपा के रखा है ...धीरे धीरे मगर बाहर आ रहा है ...चाबी संभल कर रखना ... सालगिरह का खजाना या कहूँ कि... खजाने की सालगिरह....बहुत बहुत मुबारक हो ....

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  23. आपका संदूक बहुत कीमती है
    कुछ चुराने का मन कर रहा है
    बेचारगी, मुफलिसी, भूख, सब आपको मुबारक
    खुशियाँ, उड़ाने का मन कर रहा है।

    जवाब देंहटाएं
  24. कविता के लिए मन का होना आवश्यक है आपकी इस पोस्ट को पढ़ कर समझ आया है.
    सुरों की पेटियां, समय की अदालत, आज फिर, अभी वक्त था और कुछ दुःख इन पांच कविताओं को कितनी बार पढ़ा है, याद नहीं आता. सबका आभार व्यक्त करने को जी चाहता भी है और नहीं भी. दोस्तों आप सब हमेशा बने रहो. यूं रेगिस्तान में दरख़्त भी बहुत दूर दीखते हैं तो नर्म नाजुक लोग मुद्दतों बाद ही मेहमान हुआ करते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  25. आज फिर ऐसा लगा कि दर्शन शाह दर्पण की कविता के दर्पण में सब कुछ दर्शित है । सब दिखे- तृप्ति-अतृप्ति, सम्मोहन-विरक्ति, आग्रह-निग्रह! सब चेतना के संदूक से निकल आये!

    कविता तो जानमारने वाली है भाई !

    जवाब देंहटाएं
  26. कविता पढ़ कर बहुत ही अच्‍छा लगा, आप जिस प्रकार मनोभावो को व्‍यक्‍त किया है बहुत ही उम्‍दा तरीका है।

    आज कल हम आपसे नाराज है। किसी दिन खबर ले ही लूँ सोच रहा हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  27. दर्शन....................................................................................................................................................................
    ये खाली क्यों छोडा पता है? इतना सारा वक़्त आपके बगैर गया। अब आये..।
    सन्दूक जब भी खुलती है मानों एक विराट सी आकृति मेरे सामने खडी हो जाती है जो कभी अतीत के तो कभी यथार्थ के गहरे सागर में मथने लगती है। मैं गडमड हो जाता हूं। सोच, विचार, ज्ञान सब हवा हो जाते हैं और बस इस सन्दूक से निकलने वाले जज्बात, भाव के अंतरतम में समा,,, सन्दूक में घुस सन्दूक बन्द कर देना चाहता हूं ताकि अन्दर् ही अन्दर रहूं, निकलू ही नहीं, शब्दों के इस भवसागर का पूरा पूरा आनन्द उठाता रहूं।
    नीचे उसके,
    तह करके,
    सलीके से,
    रखा हुआ है...
    ...'बचपन' ।
    इसीके साथ खेलता रहूं।
    बगल में ही,
    पड़ी हुई थी,
    'आवारगी'.
    इसे देख पडी ही रहने दूं।
    एक जोड़ी,
    'वफाएं' खरीद ली थी।
    तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
    पर,
    मुझपे...
    .....
    .....
    ये अच्छी नही लगती।
    सोचता हूं कुछ कर इसे सलीका दूं और अच्छी लगने लगे..पर वाकई इसे अच्छी न रहने की आदत सी है..
    सन्दूक में घुस बस सोचता रहूं।
    पहले भी उस सन्दूक मे खो गया था..अबके फिर...। गज़ब।

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  28. सालगिरह भी। जनाब इससे बेहतर और क्या।

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  29. wah Darpan ji, kya alfaaz likhein hain apne blogging kee saalgirh par. Bahut khoob. Saalgirah mubarak.

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  30. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  31. doh baar chhap gayee thee is liye nikalee, kuchh aur nahee samjhna ji

    जवाब देंहटाएं
  32. यह तुमने ठीक नहीं किया दर्पण !!!
    यह कविता तो मैं पोस्ट करने वाला था... आपके नाम के साथ... अपने ब्लॉग पर...
    कोई सुनियोजित योजना थी क्या... अपूर्व और तुम दोनों एक साथ ब्लॉग लिस्ट में दिख रहे हो :)

    खैर...

    वोही बात यहाँ भी कहूँगा

    हम्म... क्या कहूँ यार... चुप ही तो करा देते हो... बताओ क्या सुनना चाहते हो... अभी तो खाली हूँ... तुमने जेबें झाड़ दी... कुछ वक्त के साथ 'कमाऊंगा' तो बताऊंगा तुमने क्या लिखा है... या क्या छोड़ दी है दस्तावेज सबके लिए..

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  33. दर्शन भाई..आपका इमेल पता नही मिला इसलिये यहाँ लिख रहा हूँ .. ठंड कविता पर आपकी टिप्पणी मुझे बहुत पसन्द आई .ऐसा लगता है वह सब कुछ आपने महसूस किया है जो मैने लिखा है ..और उस अभागन दीपा पर जो आपने लिखा है उसे मै महसूस कर सकता हूँ उस पर एक पोस्ट लिखिये ..या कोई कविता ..आपने लिखी हो । और इमेल पता भी भेजिये

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  34. ये कविता तो शायद मैं पहले भी पढ़ चुकी हूँ आपके ब्लॉग पर
    उत्कृष्ट शिल्प है
    साधुवाद

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  35. darpan,

    chhupe rustam ho yaar !
    jab bhi kuchh sunate ho, achambhit kiye bina nahi rahte...yeh to ek beej dharti mein boya aur phoooooooooor karte hue senkadon kaliya, rangberangee phool prasfut hue, chitke...
    khushi huee kavita padhkar, aisa bhi hota hai zindagi ka rozmaancha...GGS

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  36. अरे इस संदूक को कहाँ से लाया गाय ..यादों की किन परतों के भीतर जा के इसे dundha गया ... कहाँ है वो आदमीं जो इसे ढूंढ़ कर लाया है बीते दिनों के खंडहरों से.....सलाम है उसकी खोज को...

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  37. aaj bade din baad kholi hai sandook...

    ismein khud ko dhoondhne kee koshish kar rahaa thaa......

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  38. पूर्वावलोकन

    संपादित करें
    manu ने कहा…
    aaj bade din baad kholi hai sandook...

    ismein khud ko dhoondhne kee koshish kar rahaa thaa......

    18 April, 2011 09:22

    जवाब देंहटाएं
  39. read full of ur blog today...found it really awesome,mind blowing. so honest ur writing is :) keep it going.. try 2 visit my blog also plzz by finding some tym...itz
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    जवाब देंहटाएं
  40. कितने ज़तन से,
    ...मेरे पिताजी ने,
    मुझे,
    ये
    'इमानदारी',
    सी के दी थी ।
    बिल्कुल मेरे नाप की ।
    बड़े लंबे समय तक पहनी।
    और,
    कई बार,
    लगाये इसमे पायबंद ,
    कभी 'मुफलिसी' के,
    और कभी,
    'बेचारगी' के ...
    .............वाह..!! वाह..!! कमाल ही कर दिया..!!

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  41. read ur poem in rasrang today,supplement f dainik bhaskar :) acha laga...tabhi soch liya tha k aaj aapke blog pe aakar aapko cngratz kahungi...all d veryy best nd keep writing....

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'ज़िन्दगी' भी कितनी लम्बी होती है ना??
'ज़िन्दगी' भर चलती है...