मंगलवार, 9 मार्च 2010

ऑफिस - ओ... फिश !!

(इस प्रेम कहानी में लड़की पाकिस्तान नहीं रहती है, लड़का गरीब नहीं है, दोनों के बीच जात-पात का भी कोई बंधन भी नहीं है, प्रेम त्रिकोण,चतुष्कोण भी नहीं है क्यूंकि अनंत कोण अगर हो जायें तो वृत्त बन जाता है, कहानी का कोई स्थूल खलनायक भी नहीं है, और प्रेमिका के भाई भी जिम नहीं जाते हैं.ये सपाट सी बोरिंग वास्तविक-सामयिक  प्रेम कहानी है. जिसका सामयिक-पन 'टाइम -प्रूफ' नहीं है और  जिसका वास्तव-पन एकाकी न हो के अलग अलग लोगों ने अलग अलग टुकड़ों में जिया है.आप अपना टुकड़ा स्वेच्छा से चुन सकते हैं.या बिना चुने भी रसस्वादन कर सकते हैं. )




जब १५ मिनट की ब्रेक हुई तो वो मुझे माचिस का  इंतज़ार करते हुए मिली...
"एक्सक्यूज़ मी लाइटर होगा आपके पास?"
उसने अपने कानों से आई पॉड के हेड सेट हटा के धीर से अपनी लो-वेस्ट जींस की जेब में खोंस लिए.मैंने अपनी जली हुई सिगरेट बिना कुछ बोले उसके हाथों में थमा दी, जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे.
नोट: लेखक का उद्देश्य कहानी को सेनसेशनल बनाने का (कतई नहीं)  है !
बहरहाल. फिर सिगरेट मुझे वापिस कर दी गयी. अभी उसने सर हल्का नीचे करके बालों को हटा के एक तरफ के कान में अपना हेड सेट डाला ही था कि मैं पूछ बैठा,
'एक्सक्यूज़ मी! व्हिच सॉन्ग?'
मेरे इस अप्रत्याशित से प्रश्न से वो मूर्त सी हो गयी और सेंडिल से ऑफिस की ग्लेज़्ड धरती को एक निश्चित ताल पे थपथापना भी रुक गया उसका...
"हं आ..."
और फिर उसने हल्की सी (हल्की सी का अर्थ सोफेसटीकेटेड लिया जाये) लेक्मे या शायद मेबिलिन मुस्कान (या मेबी शी इस बोर्न विथ इट) से उत्तर दिया...
"एकोन."
"लोनली?"
"न न परेंट्स के साथ रहती हूँ."
"नहीं मेरा मतलब गाना?"
"ओह... अच्छा !"

जो दूसरा वाला हेड सेट था कॉटन-बड की तरह मेरे कान में खुद ही डाल दिया उसने . कितने धीरे से नजदीक आई थी वो.
उसके कांटेक्ट लेन्सेस के अन्दर से झांकती आँखें किसी इनकमिंग मेल की तरह चमक रही थी, उसके होंठ यूँ लगते थे मानो मैक-डी का म्योनिस. सर ऊपर करके पतला सा स्त्रियोचित धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था.
'ब्लेम ओन मी' , किसी आंग्ल ट्रांस भजन की तरह , मेरे कानों में मोनो इफेक्ट के साथ गूँज रहा था. 'अल्ट्रा माएल्ड्स' को आधी पी के ही अपनी सेंडिल से बुझा दी उसने और शिष्टाचार की पराकाष्ठा तब हुई जब उसने दूसरा हेड सेट भी " ओ नो ! गोट्टा गो!!!" कह के अपने कानों से मेरे कानो में लगा दिया. और ८ जी. बी. का आई पॉड मेरे हाथों में थमा दिया.
खट-खट-खट की आवाज़ से धीरे धीरे दौड़ते हुए बोली "अगले ब्रेक में वापिस कर देना."
मेरा एकोन स्टीरियो हो गया !
अगले ब्रेक में पहचान लूँगा उसे? वैसे उसके चेहरे में एक अजीब सी गेयता थी इसलिए उसे याद करने में कोई दिक्कत नहीं हुई.तभी तो किसी अर्धविक्षिप्त दिमाग के खाली कोटरों में चलने वाले अंतर्नाद की तरह उसका सारा 'य मा ता र', 'फेलुन फाएलुन' और 'डा डम' चेतन के शब्दों  से उतर के संगीत की ध्वनियों में बदल गया ,
लेकिन किसी कलापक्ष के रसिक कवि के विरोधाभास अलंकार की तरह उसकी हंसी मुक्त छन्द थी.
मैं अपना ब्रेक एक्सीड कर चुका था.

यदि प्रेम कहानियों का ऍल. सी. ऍम. लिया जाये तो 'प्रेम से पहले की तकरार' भी उत्तर से पहले आई 'कॉमन अविभाजित संख्याओं' में से एक होगी.
वो मुझसे बोलती ऑल मेन आर बास्टेड्स,
और मैं ऑल गर्ल्स आर बिचेज़.
लेकिन बाद में ज्ञात हुआ कि ये वैचारिक-द्वन्द तो महिला बिल को पास न करने को लेकर किये गए गुप्त-समर्थन का 'दर्शित-असमर्थन' सा है.
सच्ची... हमारे विचार बहुत मिलते थे...
एक दिन कहा भी उसने, "मुझे शादी के बंधन  में बंधना पसंद नहीं है, और तुम भी तो यही चाहते हो. हमारे शादी न करने के बारे में विचार कितने मिलते हैं हैं न, और, हमें  ऐसा ही जीवन साथी तो चाहिए जिसके साथ हमारे विचार मिलें.  चलो हम शादी कर लें?"
हम लोगों की खूब बातें होने लगी,
इन्टरनल मेल:
("ब्रेक?",
"५ मि."
"ओकी डोकी"
"चलें अब?")
एस ऍम एस,  क्लोज़्ड यूजर ग्रुप, याहू मेल, वीकडेज़ के लंच ब्रेक, सुट्टा ब्रेक और वीकेंड में पी. वी. आर., अक्षरधाम, सेण्टर स्टेज मॉल उफ्फ..... (कई बातें करना कितना आसान होता है बताना मुश्किल...)


क्रेडिट कार्ड और वोडाफ़ोन के थर्ड पार्टी कलेक्शन डिपार्टमेंट के पत्र-व्यवहारों और फ़ोन से स्पष्ट था कि मैं प्रेम में था.
उसे भी सच में मुझसे प्रेम हो गया था, मेरी ही ख़ातिर तो उसने लोरेल से बालों की स्ट्रेटनिंग कराई थी. और उसकी लो-वेस्ट-जींस भी उतनी लोवेस्ट नहीं रही थी अब. (आखिर प्रेम ही तो स्त्री का प्रथम-कुफ़्र-फल होता है जो उसे लज्जा का आभूषण प्रदान करता है.)
जैसा कि उसने क्रमशः की बातों में बताया था,उसका फिल वक्त कोई बॉय फ्रेंड नहीं था, ५ उसे डिच कर चुके थे, २ से उसने बाकी ५ का प्रतिशोध लिया था.
और मैं उसकी ज़िन्दगी में मोहन राकेश के 'अन्तारल' का कोष्ठक 'भर' था कोष्ठक-भर नहीं.
गीता के विभूतियोग के २१ वें से ४२ वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं उसके प्रेम और उसकी ख़ूबसूरती के ऊपर न्योछावर कर के ढेर सारी कविताएँ लिख डाली थीं.कुछ उपमाएं अपनी मौलिक भी थी जैसे: भ्रष्टाचारों में तुम नेता, मुद्रा में तुम डॉलर (वैसे मेरे भीतर डॉलर और यूरो को लेकर ये कन्फ्यूजन था की ज़्यादा पार्थ  कौन है?) और आतंकवाद में तुम ही लश्कर-ऐ-तैय्यबा हो.
ये सिलसला तब तक चलता रहा जब तक कि आई टी डिपार्टमेंट से चेतावनी की प्रिंटेड हार्ड कॉपी नहीं आ गयी (इ मेल के लिए तो इनबॉक्स फुल था ना !). हमारे रयुमर्स, 'ऑर्गनाइजेशनल कम्यूनिकेशन के प्रकार' इस विषय के  परफेक्ट उद्धरण बन गए थे. ऑफिस मैं हम ब्रह्म की तरह ओमिनीप्रजेंट थे, कॉफ़ी वेंडिंग मशीन के इर्द गिर्द, ट्रेनिंग रूम की पीछे वाली ऊँघती बेंचों में, हर केबिन के फ़ोन में 'ओके बाय' और 'अच्छा एक बात सुनी' के बीच.हमसे  कैफेटेरिया वेंडर भी खुश था.  आजकल उसके कम्पलीमेंट्री सॉस के पाउच जो कम खर्च होते थे. फिर भी उसके स्नेक्स लोग चटखारे लेकर खाते थे.


लेकिन नियति का 'एक्स-बॉक्स' देखो...
जैसा कि मुझ जैसे लेखक की कहानियों, और मुझ जैसे जीव का होता है...
...इस कहानी का भी दुखांत हो गया...
बावज़ूद इसके कि उसे लिव-इन-रिलेशन बहुत पसंद थे(जैसा कि उसने कहा भी था कि एक ही तो रिलेशन है जिसमें लिव यानी ज़िन्दगी है) उसे अमृता प्रीतम प्रभावित नहीं कर पाई,
और हम दोनों ने शादी कर ली.
या अगर सलमान रुश्दी के शब्दों में कहें:
नहीं नहीं ये नहीं चलेगा...
आई नीड टू बी मोर स्पेसिफिक..
'उसने मुझसे शादी कर ली.'

36 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है..’लाइफ़ इन अ मेट्रो’ के बीच गीता के ’विभूति-योग’ का ’एक्स-बाक्सीय’ तड़का..शायद रिटर्न मे लेखक को ज्ञान-योग का सार मिला होगा :)...मगर यह

    जैसा कि मुझ जैसे लेखक की कहानियों, और मुझ जैसे जीव का होता है...
    ...इस कहानी का भी दुखांत हो गया...
    लेखक की कहानियों का दुखांत्त ही क्यों होता है..ऐसा तो नही लेखक कथा के अंत मे स्वयं दुःख चुन लेता है..!!!
    वैसे उपमाओं के अपने स्रोत को स्पष्ट करने के साथ ही नये प्रयोग करने के पथ को प्रशस्त कर दिया है....;-)

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  2. "शब्दों की जबरदस्त बाजीगरी...और भी लिखना है इस कहानी पर बाद में..."
    प्रणव सक्सैना
    amitraghat.blogspot.com

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  3. कहानी में ज़िन्दगी कि उठापठक और आपाधापी के बावजूद मानवीय चेहरों कि उपस्थिति कि गर्माहट बहुत कुछ बची हुई है.
    कहानी सूक्ष्म बिन्दुओ कि और इशारा करती है जो हमारी अनुभूति का हिस्सा होते हुए भी हमारी दृष्टि से ओझल होते है.कहानी कि शैली नई नई सी लगी.लेखक पारम्परिक ढांचे को तोड़ने की कोशिश करता लगा.कथ्य चाहे सधारण है पर शैली में कलात्मकता है.रोजाना ज़िन्दगी में प्रयोग होने वाले बिम्बों का भावो के अनुकूल प्रयोग है.कोष्ठक-भर का प्रयोग repeated था.गीता के विभूतियोग के २१ वें से ४२ वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं अनूठा प्रयोग था.कहानी और अच्छी बन सकती थी पर कथा का अंत होते होते गढमढ़ हो गयी.ये मेरी अपनी राय है,जरूरी नहीं लेखक को भी यही लगा हो.वैध का कम दवा देना है.मृत्यु को परास्त करने का ठेका नहीं लेता.लेखक का काम भी नये प्रयोग करना है.धीरे धीरे नई शैली भी अपनी जगह बना लेती है.कहानिया पढ़कर अक्सर हैरानी होती है लेखक किस तरह कहानिया जोड़ लेते है जैसे इर्द गिर्द कि कोई घटना हो.

    बढ़िया अभिवियक्ति बधाई

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  4. मैंने सुना है लिखने के लिए उसमें डूबना पढता है... आप अलग होकर लिखते हैं.. बहुत चालाकी से... थोडा टाइम देना पड़ता है लेकिन बाँध लेते हो...

    वैसे हमारे बीच उपस्थित प्रसिध्ध समालोचक ने पहले ही चीड-फाड़ कर डाली है :) अब कहानी अपने उजले बिस्तर पर हरे पर्दों में चिल्ला रही है अपने ओपरेशन से :)

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  5. jyada to nahi janti per itna pata hai padker bahut anand aya.ek padak or kya chahiye. achi khurak paker man prasan hai.

    shukriya.

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  6. प्रेम फास्ट फॉरवर्ड रोचक और नये ढंग में..

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  7. me padhh rahaa hu, padhhata gaya..doobataa gayaa aour har ek shbdo me kahaani ka marm pakadtaa huaa chalaa...chalaa..itnaa ki kahaani ke dukhaant par bhi nahi rukaa..., apoorv ne sach likha ki amooman kahaani dukhant hi kuo hoti he, is prashn par jyada taajjub nahi huaa kyoki adhikatar esi hi hoti he kintu yah bhi thik usi tarah he jis tarah se geeta me likha jaa chukaa he..sukh-dukh-sukh..chakra he.., fere me aadami..kahaani jeevan ka ansh hoti he aour adhiktar ansho ka samapan dukh se hota he kyoki ynha mratyu jesa param sukh nahi he.../ansh chhootate he fir jud jaate he..sukh ke saath..dukh ki aour../ yadi ulta ho to kahaani ka samapan hamesha sukhaant hi hoga../ ham sukh se shuruaat karnaa chahte he.., yaani sukh se jab bhi kuchh shuru huaa vo dukh par hi to khatm hogaa yadi kahaanikaar doob kar likh rahaa he to...///kher../ naye kissago ki ek shrankhlaa he..jinhone nai kavitao ki tarah hi kahaaniyo me kranti laai he../ usame yadi aapko fit kartaa hu to baat isaliye nahi banti kyoki nai kahaaniyo me bhi mene itni lahre nahi dekhi jitni aap uthaate he..hnaa..pryog aour aadhunikta ke saare taane baane aapka maanas buntaa he jo kahaani ko sashkt karne me 100 fisadi sahi bethataa he..., prem me jab bhi shaadi jesa tatv peda hotaa he..prem nahi rahtaa..yah pakka aour svabhavik badlaav he..kyoki prem sirf prem rah saktaa he jisme sirf tyaag ko hi ishvar ne rahne ki aagyaa di ho shayad///
    aanand aayaa padhhne me..kahaani ki saarthaktaa yahi he..//

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  8. अपूर्व ने पहले ही कमेन्ट में वो बात कह दी जो पढ़ते ही मुझे क्लिक हुई थी .....


    ऐसा कर लो .प्रोफेशनली लेखक का जामा पहन लो ......

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  9. नवीनतम बिम्बों के अद्भुत सम्मिश्रण व आकर्षित करने वाली रोचक लेखन शैली के बावजूद कहानी का अंत नहीं जमा. मंत्रमुग्ध हो पढ़ते जाने के बाद एक कसक सी रह गयी कि कहानी और भी अच्छी हो सकती थी..!

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  10. daktar saahab kee baton par amal karo...

    aur haan khuraak samay par lete rahnaa ...

    arsh

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  11. जुदा शैली और नये प्रयोग ने मुझे बहुत प्रभावित किया. आगे तमाम खुले रास्ते हैं दोस्त.....

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  12. कुछ दिन पहले आफ़िस मे ही पढा था..IE6 होने के कारण कमेन्ट नही कर पाया...बहुत ही उम्दा सोच है..इन लाईनो पर तो जैसे हसी ही आ गयी...

    "हं आ..."
    और फिर उसने हल्की सी (हल्की सी का अर्थ सोफेसटीकेटेड लिया जाये) लेक्मे या शायद मेबिलिन मुस्कान (या मेबी शी इस बोर्न विथ इट) से उत्तर दिया...
    "एकोन."
    "लोनली?"
    "न न परेंट्स के साथ रहती हूँ."
    "नहीं मेरा मतलब गाना?"
    "ओह... अच्छा !"


    imagination है या observation :) ....

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  13. जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे.

    इलेक्शन वाली इंक से लिखी गयी एक जादुई लाइन..उंगलियों पर एक गहरा निशान छोड़ जायेगी..जलने का..कितने ’प्रोफ़ेशनल’ राइटर्स सर धुन लेंगे इसे पढ़ कर...
    गुलजार ने इसे पढ़ कर ही लिखा होगा..
    लब पे जल रही है जो बात फूँक दे
    फूँकों से रात की ये राख फूँक दे

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  14. क्रेडिट कार्ड और वोडाफ़ोन के थर्ड पार्टी कलेक्शन डिपार्टमेंट के पत्र-व्यवहारों और फ़ोन से स्पष्ट था कि मैं प्रेम में था.

    आपने ध्यान दिया क्या कि यह पंक्ति प्रेम-कथाओं के पारायण मे आये एक ’पराडाइम शिफ़्ट’ की तरह से है?..पिछले दशकों, शतियों, सहस्राब्दियों की गाथाओं मे ’प्रेम-रोग’ के ’सिम्प्टम्स’ कितने अलहदा होते थे..अब नायक/नायिका को इस रोग को ’डाइग्नोज़’ करने के लिये भूख न लगने (त्रिफ़ला-चूर्ण के सेवन के बावजूद), बदन मे हरारत होने (और सारी दवाओं के नकली सिद्ध हो जाने), अकेले कमरे मे बंद रहने (और घर से भाग जाने के प्लान बनाने), हर चेहरे मे ’एक’ चेहरा दिखाई देने (सो पोएटिक), खुद से घंटो बातें (बकवास)करने, तकिये मे मुँह छुपा कर बिना बात रोने (प्याज काटने के अलावा‌), गुनाहों का देवता/श्रंगार शतकम्‌/ मिल्स ऐंड बून्स को सीने से लगा कर सोने (अर्थात्‌ बस आँखें बंद कर लेने), पिक-सारिकादि से हाले-दिल बयां करने, अताउल्लाह खान/आतिफ़ असलम को (कुछ केसेज्‌ मे मुकेश, नूरजहाँ या मेंहदी हसन साहब को) दिन-रात सुनने , बेबात चिड़चिड़ा होने (यहाँ खट्टा खाना पसंद करने को इन लक्षणों मे शामिल नही कर रहा हूँ) जैसे परंपरागत (प्रकारांतर मे घिसे-पिटे) रोग-चिह्नों की प्रतीक्षा नही करनी पड़ती है..
    ..दरअस्ल यह फ़र्क बदलते समय के साथ प्रेम-व्यवहार मे आये बदलाव की की वजह से नही वरन्‌ हमारे रोजमर्रा के जीवन मे और खासकर प्रेम जैसी नितांत व्यक्तिगत (और इसी लिये सर्वाधिक सामाजिक भी) भावनाओं मे बाजार(-वाद) के घुसपैठ का परिणाम है..कि आज के वक्त मे हम प्रेम-प्रदर्शन के लिये कपोत-संदेश का नही वरन्‌ वोडाफ़ोन-एयर्टेल आदि की ’खास’(उस विशिष्ट नंबर के लिये एसाइन की हुई)रिंगटोन बजने या डेडीकेटेड ’संक्षिप्त-संदेश-सेवा’ के भरोसे रहते हैं (रात्रिकालीन कन्सेशनल काल सेवा का भला हो)..वैसे भी आज के समय मे जब हमारे प्रेम का स्पांसर आर्चीज, ऑफ़िस-पार्टीज का डोमिनोज्‌ और रोजमर्रा की खुशियों के स्पांसर्स कोकाकोला जैसी मार्केट-शक्तियाँ करती है..वहाँ अपनी लेखनी के द्वारा इन बातों को चीन्हना आपकी पर्यवेक्षण-शक्ति की सूक्ष्मता का परिचायक है..लगे रहो!!

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  15. जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे.

    :)


    एक्सक्यूज़ मी! व्हिच सॉन्ग?'
    मेरे इस अप्रत्याशित से प्रश्न से वो मूर्त सी हो गयी और सेंडिल...
    एक बार तो सेंडिल शब्द पढ़ते ही सांस थम गयी थी हमारी...

    :) :)

    सर ऊपर करके पतला सा स्त्रियोचित धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था.

    :) :)


    'अल्ट्रा माएल्ड्स' को आधी पी के ही अपनी सेंडिल से बुझा दी उसने .................

    :(
    :(
    फिर कहते हो कि तुम दोनों के ख्याल मिलते हैं आपस में...
    .सच बताओ...हमने तुमने कभी आधी पी कर अपने जूते से बुझाई है....???

    लेकिन किसी कलापक्ष के रसिक कवि के विरोधाभास अलंकार की तरह उसकी हंसी मुक्त छन्द थी....
    ये सब इसलिए कहा है के ' बे-तखल्लुस' सिर्फ फाइलातुन नहीं है.....


    और उसकी लो-वेस्ट-जींस भी उतनी लोवेस्ट नहीं रही थी अब. (आखिर प्रेम ही तो स्त्री का प्रथम-कुफ़्र-फल होता है जो उसे लज्जा का आभूषण प्रदान करता है.

    बहुत सही कहा...





    और अंत में कहानी ख़त्म....





    बहुत सी कहानियां " बे-तखल्लुस '' की ग़ज़ल जैसी होती हैं...



    कहीं भी ख़त्म हो जाती हैं...

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  16. aur kahin se bhi shuroo...

    :)


    hai naa jhon..............!!!

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  17. जब १५ मिनट की ब्रेक हुई तो वो मुझे माचिस का इंतज़ार करते हुए मिली..


    maachis ke baare mein tumhaari soch kabhi nahin badlegi jhon.....

    sirf tum ho jo maachis se mahroom hote ho..
    aur koi nahin....

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  18. जबरदस्त बुनावट। मुग्धकारी। और क्या कहूँ पंडितों ने सब कह ही दिया है।
    @ बेचैन आत्मा - कहानी का अंत नहीं जमा.सहमत हूँ।
    अब इतना अच्छा लिखोगे तो पाठक को नई राहें दिखेंगी, उम्मीदें बढ़ेंगी और नहीं पूरी होंगी तो यही कहेगा :)
    कन्हैयालाल मुंशी जी ने एक उपन्यास लिखा था - तपस्विनी। उसमें नायिका चेतना के उस स्तर पर जा पहुँचती है कि प्रेमी नायक में वेद व्यास का अवतरण करा देती है। ..गीता के श्लोकों के सन्दर्भ से जाने क्यों तपस्विनी याद आ गई।.. आज कल वैसी प्रेमिकाएँ होती हैं क्या? तुम पूछोगे प्रेमी वैसे होते हैं क्या ? ..

    नान्तोSस्ति मम दिव्यानां विभूतिनां परंतप
    एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।

    यह कहानी हिन्दी का अधुना संस्कार करती है। .. जवान लोग जब डूब कर लिखते हैं तो अक्षर मोती से चमकते हैं । डियर, प्रेम में बहुत ताकत होती है। .. हँ.. क्या दिन थे ! :)

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  19. आपकी कहानी को पढकर अब सोच रहा हूँ कि क्या लिखूँ जो सार्थक सा लगे। पर आपके जैसे प्यारे खूबसूरत नए शब्द नही है मेरे पास...। बस एक शब्द है अद्भुत......

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  20. "sandook" got its match...believe me....

    हतप्रभ हूँ...विस्मित हूँ...इसे पढ़लेने के बाद और कुछ पढ़ने को जी न चाहे, कुछ-कुछ वैसी ही मनःस्थिति पे आ गया हूं।

    इन आधुनिक बिम्बों के महासागर में ऐसा डूबा हूँ कि लेक-स्वीमर होते हुये भी लगता है तमाम स्ट्रोक भूल गया हूँ। किसे कहानी के आदि-अंत की पड़ी है...

    god, i am mesmerised..its like a direct hypnotism attacking steight from my laptop screen to my mind!

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  21. और "प्राची के पार" का नया लिबास मोहक है उसी आफिस वाली "फिश" की तरह मोहक!

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  22. गुप्त-समर्थन का दर्शित असमर्थन...amazing!

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  23. अपने दो साल की ब्लौगिंग में, विगत कई सालों से जितनी पत्रिकायें पढ़ता आ रहा हूँ...बिम्ब और शिल्प के लिहाज{कथ्य की बात नहीं कर रहा मैं, सिर्फ और सिर्फ बिम्ब और शिल्प की बात कर रहा हूँ} ये अभी तक की सर्वश्रेष्ठ लिखी रचना लगी है-कविता और कहानी दोनों को गिनते हुये।

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  24. ह्म्म..गौतम साहब ने कुछ ज्यादा ही तारीफ़ नही कर दी क्या इस पोस्ट की? (हाँ वैसे मै ’स्मोक-प्रूफ़’ हूँ) :-)

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  25. jyaadaa nahi ki hai...


    hamaare hisaab se.............

    abhi aur bhi bahut gunjaaish hai...

    :)

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  26. इंट्रेस्टिंग प्राणी हो यार....

    "जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे."

    ये तो है ही
    "नोट: लेखक का उद्देश्य कहानी को सेनसेशनल बनाने का (कतई नहीं) है !"

    "धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था. "

    ऐसे बहुत बिंदु है, लिखने बैठे तो नई पोस्ट तैयार हो जाएगी...फिर दोषारोपण होगा..खैर
    जैसा सोचता जा रहा था, वैसे ही जा रहे थे..या जैसे जा रहे थे वैसा ही सोचता जा रहा था।

    अपना प्रेम का हिस्सा ढूंढ़ लिया भाई हमने

    डिम्पल जी की, गुलज़ार की बात को दोहराऊंगा

    "कथ्य चाहे सधारण है पर शैली में कलात्मकता है.रोजाना ज़िन्दगी में प्रयोग होने वाले बिम्बों का भावो के अनुकूल प्रयोग है"

    "ज़्यादा कहने से मायने डाईलुट हो जाते हैं"


    आपको पढना ज़रूरी होगा हमारे लिए

    निशांत कौशिक

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  27. बेहतरीन से कुछ ज्यादा ....

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  28. कहानी की प्रशंसा करने का मन तो है मगर नही करूँगी....!

    तुम सिगरेट से हट के कुछ नही सोच पाते....? तुम्हे क्या लगता है कि बड़ा अच्छा लगता है मुझे तुम्हारे बारे में ये पढ़ कर....??

    कोई बड़ी अच्छी बात नही है चैन स्मोकर होना।

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  29. हाँ, कहानियों पर मैं कुछ बोल नहीं पाता, कविताएं रहें तो हांथ चलता है कुछ-कुछ !
    इसलिये ही किशोर चौधरी-से मास्टर-पीस पर भी टिप्पणी नहीं हो पाती ! आप भी तो बहक रहे हो उसी श्रेणी के लिये कि मुझसे टिप्पणी न हो पाये !

    अब अगर इतना देर से आऊं और इतनी समृद्ध टिप्पणियाँ पढ़ूँ, तो और चुप रह जाने का मन करता है । अब कहानियों पर टिप्पणियां करना सीखना होगा अपने प्यारे ’दर्पण'की खातिर !
    कहानी 'अदभुत' है भईया !

    जवाब देंहटाएं
  30. एकॉन के ’ब्लेम ऑन मी’ का जिक्र यूँ ही नही लगता है..कहानी के अंत तक आ कर यह बात स्पष्ट होती है..हालांकि मुझे पसंद रहा यह गीत..मगर इस गीत मे एक स्व-आरोपित और कुछ असहज/नकली सी गिल्टी-फ़ीलिंग है जो लेखक की दुखांतीय लिबिडो से मैच करती हुई लगती है..वैसे कहानी दोबारा पढ़ते हुए एक मस्त फ़िल्म भी याद आयी पिछले साल की..फ़ाइव हंड्रेड डेज़ ऑव समर..देखी क्या?

    जवाब देंहटाएं
  31. "मुझे शादी के बंधन में बंधना पसंद नहीं है, और तुम भी तो यही चाहते हो. हमारे शादी न करने के बारे में विचार कितने मिलते हैं हैं न, और, हमें ऐसा ही जीवन साथी तो चाहिए जिसके साथ हमारे विचार मिलें. चलो हम शादी कर लें?"
    अच्छा ख़याल है... :P
    हमारे रयुमर्स, 'ऑर्गनाइजेशनल कम्यूनिकेशन के प्रकार' इस विषय के परफेक्ट उद्धरण बन गए थे. ऑफिस मैं हम ब्रह्म की तरह ओमिनीप्रजेंट थे, कॉफ़ी वेंडिंग मशीन के इर्द गिर्द, ट्रेनिंग रूम की पीछे वाली ऊँघती बेंचों में, हर केबिन के फ़ोन में 'ओके बाय' और 'अच्छा एक बात सुनी' के बीच.हमसे कैफेटेरिया वेंडर भी खुश था. आजकल उसके कम्पलीमेंट्री सॉस के पाउच जो कम खर्च होते थे. फिर भी उसके स्नेक्स लोग चटखारे लेकर खाते थे. wow!!!!
    but the best is
    गीता के विभूतियोग के २१ वें से ४२ वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं उसके प्रेम और उसकी ख़ूबसूरती के ऊपर न्योछावर कर के ढेर सारी कविताएँ लिख डाली थीं.कुछ उपमाएं अपनी मौलिक भी थी जैसे: भ्रष्टाचारों में तुम नेता, मुद्रा में तुम डॉलर (वैसे मेरे भीतर डॉलर और यूरो को लेकर ये कन्फ्यूजन था की ज़्यादा पार्थ कौन है?) और आतंकवाद में तुम ही लश्कर-ऐ-तैय्यबा हो.

    काश मैं भी प्राची के उसी पार रहता जिस पार आप हो....

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  32. पहले भी आई थी ये लाजवाब कहानी पढ़ गयी थी ....बस कमेन्ट बॉक्स ही नज़र नहीं आ रहा था ....!!

    कैसे लिख ली थी ये लाजवाब कहानी कुछ बतायेंगे ...??
    सच में आधुनिक कहानी की होड़ में ये अपना प्रथम स्थान रखती है ......इसे किसी पत्रिका में भेजिए .....!!

    और ये क्या है .....

    "बहर लगी न ज़िन्दगी सी बस."

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'ज़िन्दगी' भी कितनी लम्बी होती है ना??
'ज़िन्दगी' भर चलती है...