हमें वही चीज़ नहीं करने को कही गयी,
जो हमें वाकई नहीं करनी थी.
'लालच','उत्सुकता' और 'धृष्टता' कमजोरियां थीं.
फ़िर भी ये 'प्रथम फल' खाने से पहले कैसे पैदा हुई हममें?
इश्वर तेरे षड़यंत्र के शिकार हम,
हमारी शुरुआत ही गलत करवाई गयी.
हम सबसे पहले जान लेना चाहते थे धूप उगाना,
पर हमें सबसे पहले ये बताया गया कि धूप,
आसमान में ही उग सकती है.
एक नामुमकिन सी जगह.
कहीं उड़ने को हम उड़न तश्तरी ना बना लें,
तब तुमने , ओ इश्वर,
हमें पकड़ा दिया 'झुनझुना'
हमें बता दी पत्थर से आग बनाने की विधी.
और तब हमने उगाये खेतों में पत्थर.
और यूँ आग के आविष्कार के चक्कर में,
हम पिछड़ गए उड़न तश्तरी बनाने को,
धूप उगाने को.
और जब हम ऊब जाने की हद तक,
आग जलाने के अभ्यस्त हुए,
हमें बताया गया आग और स्वाद का सम्बन्ध.
तब तक पत्थर भी घीसे ही जा चुके थे,
उनके नुकीले-पन ने हमें शाकाहारी नहीं रहने दिया.
लेकिन फ़िर भी पत्थर बहुत थे,
और ज़्यादातर नुकीले.
अस्तु...
कबीले बने, देश बने...
राजा, महाराजा...
ऍम. डी., सी. ई. ओ. ...
हम भी इश्वर बन सकते थे,
पर हमें भुलवा दिया गया,
हम भी इश्वर बन सकते हैं,
उड़न तश्तरी बना सकते हैं,
धूप उगा सकते हैं.
जब हमें यकीन हो आया कि धरती के दो छोर हैं,
जहाँ से कूद से आकाश में पंहुचा जा सकता है,
तेरे पैगम्बरों ने घोषणा करी कि दुनिया गोल है...
कुछ लोग विश्वास भी कर गए,
और तब से ही दुनिया गोल है.
एक दिन सबको पता लगा कि आकाश जैसी कोई चीज़ नहीं,
तब से,
हाँ ठीक तब से, कुछ ना होना आकाश हो गया.
उफ्फ...
और यूँ,
जब हम साथ में मिलकर,
बना सकते थे उड़न तश्तरी,
उगा सकते थे धूप.
तुमने अपने पैगम्बर भेज के हम सब में फूट डाल दी.
"वैज्ञानिक."
न्यूटन !
था तो पहले वो भी इन्सान,
पर तुमने ही उससे कहा कि जाओ,
बताओ...
हम सब धरती से चिपके हुए हैं.
और उसके कहने के बाद से हम देखो वाकई धरती से चिपके हुए हैं.
आइन्स्टीन !
तुमने ही बताया उसे...
और हमें उसने...
कि हम कोई भी चीज़ उगा नहीं सकते,
पैदा नहीं कर सकते,
और तब से कुछ भी पैदा नहीं होता इस धरती में.
(कभी उड़ती खबर आई थी दो ढाई हज़ार साल पहले कि तू पैदा हुआ है.)
ठीक उस वक्त,हमारी सच्चाइयों को सब कल्पना कहने लगे.....
हम कभी भविष्य में पढ़ा जाने वाला इतिहास हो गए,
तेरी साजिश के शिकार हम,
हम लेखक, कवि, चित्रकार.
क्या ये सच नहीं कि शब्दों से
'उ-ड़-न-त-श्त-री' बनाना,
हम कबके सीख चुके थे.
इतना तो मानते हो ना तुम कि,
कविताओं में उगा भी ली थी धूप?
और हाँ,
चित्रकार पैदा कर चुके थे कई सारे सूरज,
बचपन से ही,
आँख, नाक और हँसते हुए सूरज,
ठीक उड़ती चार चिड़ियों के पास.
इश्वर यकीन करो,
हम नंगे रहकर भी,
बिना पका खाकर भी,
बिना किसी 'कोर्पोरेट - हयार्की' के,
बिना देश और कबीलों के 'वैलिड पासपोर्ट' के,
बिना रिलेटिविटी के सिद्धान्त के,
और गुरुत्वाकर्षण के बावजूद,
बना सकते थे 'उड़न तश्तरी',
उगा सकते थे 'धूप'.
जो हमें वाकई नहीं करनी थी.
'लालच','उत्सुकता' और 'धृष्टता' कमजोरियां थीं.
फ़िर भी ये 'प्रथम फल' खाने से पहले कैसे पैदा हुई हममें?
इश्वर तेरे षड़यंत्र के शिकार हम,
हमारी शुरुआत ही गलत करवाई गयी.
हम सबसे पहले जान लेना चाहते थे धूप उगाना,
पर हमें सबसे पहले ये बताया गया कि धूप,
आसमान में ही उग सकती है.
एक नामुमकिन सी जगह.
कहीं उड़ने को हम उड़न तश्तरी ना बना लें,
तब तुमने , ओ इश्वर,
हमें पकड़ा दिया 'झुनझुना'
हमें बता दी पत्थर से आग बनाने की विधी.
और तब हमने उगाये खेतों में पत्थर.
और यूँ आग के आविष्कार के चक्कर में,
हम पिछड़ गए उड़न तश्तरी बनाने को,
धूप उगाने को.
और जब हम ऊब जाने की हद तक,
आग जलाने के अभ्यस्त हुए,
हमें बताया गया आग और स्वाद का सम्बन्ध.
तब तक पत्थर भी घीसे ही जा चुके थे,
उनके नुकीले-पन ने हमें शाकाहारी नहीं रहने दिया.
लेकिन फ़िर भी पत्थर बहुत थे,
और ज़्यादातर नुकीले.
अस्तु...
कबीले बने, देश बने...
राजा, महाराजा...
ऍम. डी., सी. ई. ओ. ...
हम भी इश्वर बन सकते थे,
पर हमें भुलवा दिया गया,
हम भी इश्वर बन सकते हैं,
उड़न तश्तरी बना सकते हैं,
धूप उगा सकते हैं.
जब हमें यकीन हो आया कि धरती के दो छोर हैं,
जहाँ से कूद से आकाश में पंहुचा जा सकता है,
तेरे पैगम्बरों ने घोषणा करी कि दुनिया गोल है...
कुछ लोग विश्वास भी कर गए,
और तब से ही दुनिया गोल है.
एक दिन सबको पता लगा कि आकाश जैसी कोई चीज़ नहीं,
तब से,
हाँ ठीक तब से, कुछ ना होना आकाश हो गया.
उफ्फ...
तुझे मुसलसल हमारे सपनों से डर लगता रहा,
हम तेरी चाल समझते जा रहे थे,
तू और चालाक होता जा रहा था.और यूँ,
जब हम साथ में मिलकर,
बना सकते थे उड़न तश्तरी,
उगा सकते थे धूप.
तुमने अपने पैगम्बर भेज के हम सब में फूट डाल दी.
"वैज्ञानिक."
न्यूटन !
था तो पहले वो भी इन्सान,
पर तुमने ही उससे कहा कि जाओ,
बताओ...
हम सब धरती से चिपके हुए हैं.
और उसके कहने के बाद से हम देखो वाकई धरती से चिपके हुए हैं.
आइन्स्टीन !
तुमने ही बताया उसे...
और हमें उसने...
कि हम कोई भी चीज़ उगा नहीं सकते,
पैदा नहीं कर सकते,
और तब से कुछ भी पैदा नहीं होता इस धरती में.
(कभी उड़ती खबर आई थी दो ढाई हज़ार साल पहले कि तू पैदा हुआ है.)
भांडा तो तेरा,इश्वर...
लिओनार्डो ने फोड़ना चाहा था,
तभी तेरे गुर्गों ने उसे चित्रकार घोषित कर दिया...
'चित्रकार' हंह !
ठीक उस वक्त,
हम कभी भविष्य में पढ़ा जाने वाला इतिहास हो गए,
तेरी साजिश के शिकार हम,
हम लेखक, कवि, चित्रकार.
क्या ये सच नहीं कि शब्दों से
'उ-ड़-न-त-श्त-री' बनाना,
हम कबके सीख चुके थे.
इतना तो मानते हो ना तुम कि,
कविताओं में उगा भी ली थी धूप?
और हाँ,
चित्रकार पैदा कर चुके थे कई सारे सूरज,
बचपन से ही,
आँख, नाक और हँसते हुए सूरज,
ठीक उड़ती चार चिड़ियों के पास.
इश्वर यकीन करो,
हम नंगे रहकर भी,
बिना पका खाकर भी,
बिना किसी 'कोर्पोरेट - हयार्की' के,
बिना देश और कबीलों के 'वैलिड पासपोर्ट' के,
बिना रिलेटिविटी के सिद्धान्त के,
और गुरुत्वाकर्षण के बावजूद,
बना सकते थे 'उड़न तश्तरी',
उगा सकते थे 'धूप'.
इश्वर यकीन करो,
जवाब देंहटाएंहम नंगे रहकर भी,
बिना पका खाकर भी,
बिना किसी 'कोर्पोरेट - हयार्की' के,
बिना देश और कबीलों के 'वैलिड पासपोर्ट' के,
बिना रिलेटिविटी के सिद्धान्त के,
और गुरुत्वाकर्षण के बावजूद,
बना सकते थे 'उड़न तश्तरी',
उगा सकते थे 'धूप'. ....
Beautiful creation !
.
दर्पण तुम्हारे इस नज़्म पर निदा फाज़ली का एक शे'र याद आया ...
जवाब देंहटाएंहर घड़ी खुद से उलझना है मुकद्दर मेरा ,
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा !
क्या कहूँ? शब्द नहीं है तारीफ़ के! जीवन में अब तक मेरी पढ़ी हुई बेहतरीन रचनाओं में से एक है ये रचना!
जवाब देंहटाएंआज आपका पूरा ब्लॉग पढूंगा! आपको अब तक ठीक से नहीं पढ़ा इसका अफ़सोस है, ब्लॉग जगत में इस तरह की रचनाएँ बहुत कम मिलती है!
जवाब देंहटाएं.....'लालच','उत्सुकता' और 'धृष्टता' कमजोरियां थीं.
जवाब देंहटाएंफ़िर भी ये 'प्रथम फल' खाने से पहले कैसे पैदा हुई हममें?
......इसके लिए अच्छे शब्द की खोच करी आपने..डिवाइन कॉन्सपिरेसी ..!
इसको पढ़ कर तुम्हारी पर्सनालिटी सोचने की कोशश कर रहा हूँ (mile jo nahi ho kabhi)... बड़े उलझे हुवे लगते हो यार ...
जवाब देंहटाएंनया साल मुबारक हो ....
डिवाइन कांस्पीरेसी का भांडा कितनी गहराई, सूक्षमता और ख़ूबसूरती से तोड़ा है...
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
हम कैसे बनाते उड़न तश्तरी
या उगाते धूप
ढाई हाँ महज ढाई हजार साल पहले
हमने तुझे जो पैदा कर दिया
वह दिन है और आज का दिन
तूने जकड़ कर रखा है
हमारी हर सोच को
बौने हो गये हैं हम सब
हौसले और दिमाग दोनों से
तेरी महानता, तेरी विशालता
तेरी उदारता, तेरे न्याय
और तेरी सर्वशक्तिमानता
का बखान करते-करते
कुछ करने से पहले भी
हमें तेरी इजाजत लेने की
हो गई है एक आदत सी
अब कभी नहीं उगेगी धूप
या बनेगी उड़नतश्तरी
तू जो यह सब नहीं चाहता
आखिर सवाल है यह
तेरे खुद के वजूद का
जीता रह, जीये जा ओ ईश्वर
आखिर मिला है अमरता का वरदान तुझे!
अपने उस बनाने वाले से
जो आज खुद तेरी कृपा को
मानता है जीवन लक्ष्य अपना!
...
बिना व्यवस्थाओं के अम्बार के भी विकास तो हुया ही था।
जवाब देंहटाएंनज़्म, डिवाइन को सलाइयों के बिना उधेड़ती है. मुझे बहुत पसंद आई है.
जवाब देंहटाएंकाफ़ी गहन चिंतन का परिणाम है डिवाइन कंस्पीरेसी।
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत में इस तरह की रचनाएँ बहुत कम मिलती है!
जवाब देंहटाएंकाफ़ी गहन चिंतन का परिणाम है डिवाइन कंस्पीरेसी।
तुम्हारे भीतर एक आग है ......ओर मै चाहता हूँ.........ये जलती रहे.........जलती रहे............!!!...................
जवाब देंहटाएंकैलाश वाजपेयी की एक कविता है......."ओर वो मनुष्य .....ईश्वर के आगे झुका हुआ ...".....पढना दोस्त .....
जवाब देंहटाएंतुम्हारा लिखा मुझे हर हमेशा अपनी कमतरी का आभास दिलाता है कि मेरी सोच कितनी सीमित है और तुम्हारी कितनी विस्तृत...सोचता हूँ तुम्हें पढ़ना छोड़ दूँ!
जवाब देंहटाएंकीर्ति चौधरी की एक कविता की दो पंक्तियाँ याद आती है ;
जवाब देंहटाएं".जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे, नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे,
ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन, तुमने अपने तक सीमित कर दिया मुझे.."
कविता का तेवर और सौष्ठव दोनों कमाल की ताजगी लिए हैं.कविता पसंद आई.बहुत पसंद आई.
जवाब देंहटाएंकविता से ज्यादा तुम्हारे विचार पसंद आये :)
जवाब देंहटाएंकई पोस्ट पढ़ी हैं आपकी..कुछ अच्छी भी लगी...पर ज्यादातर में एक अजीब सी complexity या कहूँ उधेड़बुन दिखी..कई बार ये भी हुआ की दोबारा पढ़ी गयी पर समझ से परे रही.कई अधूरी छोडनी पड़ी..
जवाब देंहटाएंमोक्ष फिल्म का गीत याद आ गया " जानलेवा"
जवाब देंहटाएंइसी को भयंकर कविता कहते हैं
जवाब देंहटाएंनिःशब्द !
जवाब देंहटाएंगौतम ने सही कहा है तुम्हारे सामने जाने कितने लोग खुद को बौना समझने लगते हैं. मैं भी उनमें से एक हूँ :-)
इस ब्लॉग पर 10 /01 /11 की प्रतिक्रिया में मेरे द्वारा जो कविता " जो कुछ भी दिया.................." में कवि का नाम भूलवश कीर्ति चौधरी लिख दिया गया है, वास्तव में यह कविता दुष्यंत कुमार की है. क्षमा चाहता हूँ.
जवाब देंहटाएंसमय मिले तो यह भी देखें और तदनुसार मार्गदर्शन/अनुसरण करें. http ;//baramasa98 .blogspot .com
काफ़ी गहन चिंतन का परिणाम है डिवाइन कंस्पीरेसी।
जवाब देंहटाएंअगर मैं गौतमजी की तरह कहूं? हालांकि सोचता मैं भी उनकी ही तरह हूं। किंतु आपकी रचनाओं में ये जो चुम्बक लगा होता है न 'गहनता' का..वो पट्ठा खींच लिया करता है। और मैं हर हमेश खींचा चला आता हूं।
जवाब देंहटाएंआखिर ईश्वर तूने 'ईश्वर' जैसा ही खेल रच दिखाया...
शायद..सत्य के भी कई आयाम होते हैं और हर आयाम के सत्य अलग-अलग होते हैं..कई सारे आंशिक सत्य किसी अवधारणा की रचना कर सकते हैं और किसी परिकल्पना को पुष्ट भी भले ही वह अस्तित्वहीन हो..और अस्तित्व भी किसी बेंचमार्क के सापेक्ष ही सत्य हो सकता है..’360-डेग्री सत्य’ ऋषियों के ध्यान का विषय रहा होगा, दार्शनिकों के चिंतन का, वैज्ञानिकों के शोध का..मगर हम आम लोगों के लिये उत्सुकता और रोमांच का ही हो सकता है..पारिजात पुष्प की भांति...जहाँ ज्ञानी जन भी आंशिक-सत्य के सोमरस से अधभरा ज्ञान का पात्र वे नेति-नेति की अपनी सीमा-स्वीकारोक्ति के पानी से भर लेते हैं (१००% अल्कॉहल जैसी भी कोई चीज नही होती ना?)
जवाब देंहटाएं..और उन्ही पैगम्बरों के मुताबिक सत्य किसी तथ्य के सापेक्ष ही होता है..निरपेक्ष सत्य जैसी कोई अवधारणा अगर होगी भी तो हमारी पहुँच से परे होगी..याद है ना ’ऑब्जेक्टिव रियलिटी’ की तमाम उजबक बहसें??..और कल्पना और यथार्थ की बीच की यह बेहद बारीक विभाजन रेखा ही हमारी सारी उत्सुकता का स्रोत है..हमारी सारी खोजों का उदगम..हमारी सारी समस्याओं की सिल्वर-बुलेट!!..ईश्वर भी कहीं इसी विभाजक रेखा के इर्द-गिर्द है..शायद थोड़ा उधर..या शायद थोड़ा इधर!..और अगर हम कथित रूप से दैवीय-षड़यंत्र के शिकार हो सकते हैं..तो शाय्द पाले के उस तरफ़ से हमे भी किसी ’ह्यूमन-कांस्पिरेसी”का सूत्रधार माना जा रहा हो..कठपुतलियाँ कौन हैं और डोर किसके हाथ मे..इसे हमारे आंशिक सत्य की चश्मे से बाँच पाना थोड़ा मुश्किल लगता है..!! :-)
खैर यहाँ पर उड़नतश्तरी का क्या इशारा है..यह बात आप अगले प्रवचन मे समझायेंगे..ऐसी आशा है भक्तों की..और हाँ कहना काफ़ी नही होगा कि पतली तनी रस्सी पे सफ़लता से चलती यह कविता तुम्हारी सबसे बेहतर कविताओं मे से एक..
एनीवे!!
आखिर आपकी कोशिशे रंग लायी और इस बार युद्द और क्रांति कविता में नहीं आई ;)
जवाब देंहटाएंलगता है नीली छतरी वाले के अहसानों का बोझ उठाते -उठाते कवि की कलम टेढ़ी हो गयी है ;)
जबरदस्त मुकाबला है..
कवि ने कई-कई सूरज बना लिए...
भले धूप उगाने नहीं दी पर फूलों भरे पौधे उगाने से नहीं रोका.क्यों,नहीं क्या?
bahut achcha likha hai.
जवाब देंहटाएंहिंदी में आज कल बहुत बड़ी बड़ी कवितायें लिखी जा रही हैं लोगों का जोर कम शब्दों के इस्तेमाल की तरफ है ऐसे में यह लंबी कविता बहुत छोटी जान पड़ी..शुरू से अंत तक इसने बांधे रखा एवोल्यूशन को अलग ही नज़र से देखने का मौका दिया इस रचना.. एक बहुत बड़े घटनाक्रम को बहुत ही कम शब्दों में व्यक्त कर दिया आपने.... :)
जवाब देंहटाएंशाह जी !!!
जवाब देंहटाएंनैसर्गिक आत्मा के परिधान को छोड़ कर कृत्रिम परिधान धारण करने से क्या हश्र हो सकता है ??? सबकुछ समेट लिया आपने मन को स्पर्श करती इस सुन्दर रचना में....अति उत्तम... कोटि कोटि अभिन्दन....डॉक्टर नूतन जी आपका शत शत आभार...
A perfect contemporary kavita.
जवाब देंहटाएंइश्वर यकीन करो,
जवाब देंहटाएंहम नंगे रहकर भी,
बिना पका खाकर भी,
बिना किसी 'कोर्पोरेट - हयार्की' के,
बिना देश और कबीलों के 'वैलिड पासपोर्ट' के,
बिना रिलेटिविटी के सिद्धान्त के,
और गुरुत्वाकर्षण के बावजूद,
बना सकते थे 'उड़न तश्तरी',
उगा सकते थे 'धूप'. ....
सही कहा कि हमसे शुरुआत ही गलत कराई गई
इतने दिनों तक कैसे इस ब्लॉग पर नहीं पहुंच पाई
बहुत पसंद आया इसलिए फॉलो कर रही हूं....
आप भी जरूर आएं...
http://veenakesur.blogspot.com/
चिंतन की पर्त दर पर्त को उधेड़ कर मर्म को स्पर्श करने वाली जीवन्त कविता.....बधाई!
जवाब देंहटाएंसद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
सोच रहा हूँ....कि इस सबके बाद अब क्या कहा जा सकता है....अगर सोच पाया तो फिर आउंगा....तब तक के लिए एक छोटा-सा ब्रेक....
जवाब देंहटाएंwhere the hell has "time-proof" gone????
जवाब देंहटाएंi hope, you were not getting hiccups during your lunch-hour...?
sahi kaha aapne....
जवाब देंहटाएंनिष्कर्ष
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से मानव मन में
उठती धारणाओं का ही परिणाम है ...
लेकिन
किसी उलझाव का ताना-बाना
दिल और दिमाग़ को
स्वतंत्र भी रहने दे,,,
ऐसा हर बार असंभव भी तो नहीं होता !!
गौतम जी और मुक्ति जी की बात से सहमत हूँ....
इसीलिए
ढंग से
'बधाई' भी नहीं कह पा रहा हूँ .... ! ? !
ईमान अगर है तो बस जन्नत नहीं है दूर.
जवाब देंहटाएंचमकेगा हर ज़र्रे में उस फिरदौस का ही नूर.
very nice write up..
मैं बस इस बात से हैरान हूँ, कि तेरे पास बुद्धि कितनी है ???
जवाब देंहटाएंआपका विचार सराहनीय है|
जवाब देंहटाएंअद्भुत अलौकिक कालजयी. आप की किताब का छप रही है ?
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना है! काश कि ये रचना/संदेश/प्रश्न कभी ईश्वर को मिले...पर शायद उसके पास कोई जवाब नहीं होगा....एकतरफा ही सही पर बहुत संवेदनशील व क्रियेटिव सवाल...
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी
जवाब देंहटाएंकभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://vangaydinesh.blogspot.com/
http://pareekofindia.blogspot.com/
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
सुनहरी धूप में झलकती उड़न तश्तरी.
जवाब देंहटाएंWakai, sahi suna tha aapke bare me.
जवाब देंहटाएंमेरी लड़ाई Corruption के खिलाफ है आपके साथ के बिना अधूरी है आप सभी मेरे ब्लॉग को follow करके और follow कराके मेरी मिम्मत बढ़ाये, और मेरा साथ दे ..
जवाब देंहटाएंBahut Badia! Maza Aa Gaya!
जवाब देंहटाएंVivek Jain vivj2000.blogspot.com
सुंदर रचना ...
जवाब देंहटाएंवैचारिक कविता......
जवाब देंहटाएंइश्वर यकीन करो,
हम नंगे रहकर भी,
बिना पका खाकर भी,
बिना किसी 'कोर्पोरेट - हयार्की' के,
बिना देश और कबीलों के 'वैलिड पासपोर्ट' के,
बिना रिलेटिविटी के सिद्धान्त के,
और गुरुत्वाकर्षण के बावजूद,
बना सकते थे 'उड़न तश्तरी',
उगा सकते थे 'धूप'.
ऐसा लगा कि कविता नहीं कोई गुफ्तगू जरी है खुद से.....आखिर ऐसा क्यों है??????
kamaal hai bhai......
जवाब देंहटाएंक्या कहू दर्पण जी स्वप्निल ने बज्ज़ किया और मैं आप तक पहुचा... कविता ने विचलित कर दिया है... बहुत परेशान हो गया हूँ डिवाइन कांस्पीरेसी की वजह से... अदभुद कविता है यह... लम्बी बात करने वाली कविता है यह...
जवाब देंहटाएंस्वप्निल के शेयर किये हुए लिंक से यहाँ तक पहुंची और अब आपकी विस्तृत सोच पर अचंभित हूँ.
जवाब देंहटाएंहेट्स ऑफ टू यू...
ओह दर्पण...कितना सही कितना सच्चा कितना सुंदर लिखा है..पहली बार ब्लॉग पढ़ा आपका और रुकने का मन नहीं..पूरा ही पढ़ जाऊं..
जवाब देंहटाएंbahut badhia ...
जवाब देंहटाएंगजब का चिंतन है,वाह!!
जवाब देंहटाएंइश्वर की हर बात को हर कृति को आँख बंद करके पूजने वाले हम ...कही उसके गुलाम तो नहीं है ...एक एक पंक्ति बार बार पढने योग्य
जवाब देंहटाएंप्रत्येक स्थापित दर्शन के विद्रोह पर उतारू रचना। किन्तु मैं अपूर्व जी के मंतव्य से सहमत हूं
जवाब देंहटाएं"सत्य के भी कई आयाम होते हैं और हर आयाम के सत्य अलग-अलग होते हैं..कई सारे आंशिक सत्य किसी अवधारणा की रचना कर सकते हैं और किसी परिकल्पना को पुष्ट भी भले ही वह अस्तित्वहीन हो..."
अस्तु चिंतन को विवश करती रचना ।
gazab ki kavita....
जवाब देंहटाएंHats off sir jee.