उम्र के इस पड़ाव में,
जब आपकी जी हुई ज़िन्दगी दुनियाँ के  लिए 'कुछ नहीं' सी है,
बेशक दुनियाँ  से आपको (कम के कम इस वक्त तक तो) कोई सरोकार नहीं (था).
तब बैठ  जाते  हैं,
एकांत  में आप.
ये  अंतस  का  एकांत...
अनेक  के  बीच  स्वेच्छा  का  एकांत...
(सनद रहे, स्वेच्छाएं अत्यंत सीमित हैं अब आपकी.) 
ऑफिस  में  रेनोल्ड्स पेन के बगल में पड़ा एकांत,
घर  में  चलते  हुए डी. वी. डी. के नीचे छुपा के रखा गया एक रुपये के सिक्के सा  एकांत.
भीड़  में  किसी जानने वाले की  जान  बूझ  के  दी  गयी  टक्कर   को  'भाई सा'ब माफ़ करना' कहकर आगे बढ़ जाने सा   एकांत.
'उसकी'  आँखों  में  उभर  आई  उदासी  को  पोछते हुए  उसके  होंठ  चूम  लेने  का  कामुक  एकांत.
वो  एकांत  जो  आवश्यक  है  आपकी  मुट्ठियों  का  खिंचाव  बढ़ाने  के  लिए.
वो  एकांत  जो ज़रूरी है  किसी ज़रूरी कागज़  को  इतने  टुकड़ों  में  फाड़ने  के  लिए,
कि  हर  हिस्से  में  बस  एक  शब्द  आये,
'प्रेम', 'भविष्य', 'सपने', 'इश्वर'.
और ये सब एक एक कर...
लगभग  एक  साथ...
कूड़ेदान में  फैंक  दी  जाएँ...
सपने  देख  चुकने  और  जाग  जाने के बीच की ये उम्र...
ये उम्र,
जब सारे युद्ध ख़त्म हो गए,
जीत और हार की वजह से नहीं...
थक जाने की वजह से.
बीमारियाँ,
'संवेदनाओं  के  बुके'  की  हद  तक  पहुंचा  के  वापिस  आ  जाती  हैं.
ये  उम्र  जब,
'तेरी माँ की...' कहके  आप  ठहाके   लगा  के  हँसते  नहीं,
गलियां  भी  अब  स्ट्रेस  बस्टर  हैं बस.
उम्र के इस पड़ाव में,
सोच  जिहादी  नहीं  सूफियाना  हो  जाती  है....
...क्यूंकि 'क'* से  शुरू  होने  वाले  सवाल उगने लगते हैं.
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*कब, क्यूँ, कहाँ, कैसे, आदि.
 
