गुरुवार, 11 नवंबर 2010

 
चूड़ियों की खनक कानफोडू  थीं.
और रास्ते तुम्हारी कलाइयों  से पतले.
छोड़ दिया जाना चाहिए था किताब को आधी पढने के बाद.
लेकिन ये बात आखिर  में बताई गयी थी उसमें.
इसलिए,
जब कुण्डलिनी जागृत होने को थी,
हम स्वप्न दोष का शिकार हो गए.
जब अक्ल और उम्र की भेंट हो जानी चाहिए थी,
हम नौकरियां  ढूंढ रहे थे.
मर जाने से अगर युद्ध जीता जा सकता  है तो भी...
कोई भी युद्ध मर जाने के बाद नहीं जीता जाता.  
होने, न होने के बीच,
तुम्हारी बुनी स्वेटर में सिले हुए तुम्हारे बाल बराबर का अंतर है.
क्यूंकि मेरे न होने पर,
कुछ भी मायने नहीं रखेगा मेरे लिए.
और  'मेरे-लिए' का होना भी 'न होना' ही होगा.
'हेवी मेटल' में गिटार का टूट जाना ख़त्म हो जायेगा.
और 'ट्रांस' में शब्दों से ज्यादा संगीत का महत्त्व भी.
इम्होटेप के मिस्र का राजा होना 'पूरी तरह से' महत्वहीन होगा मेरे लिए,
जैसे खुद इम्होटेप के न होने के बाद उसके लिए था.  
(उसके लिए? उसके... ना होने के बाद? हा !)
...मोनालिसा की मुस्कान मेरे लिए बनाई गयी है.
...बस !
...मेरे !!
...लिए !!!
और मैं जानता हूँ इसका 'होना', इसीलिए  ये वाकई  है.

देखना >> ध्यान देना >> सोचना >> कुछ करना >> असर होना.
'जंजीर सबसे ज्यादा उतनी मज़बूत होती है, जितनी उसकी सबसे कमज़ोर कड़ी'

इसलिए छोड़ दिया जाना चाहिए था किताब को आधी पढने के बाद.
लेकिन ये बात आखिर  में बताई गयी थी उसमें.
चूड़ियों की खनक कानफोडू  थीं.
और रास्ते तुम्हारी कलाइयों  से पतले.
जब अक्ल और उम्र की भेंट हो जानी चाहिए थी,
हम नौकरियां  ढूंढ रहे थे.
मर जाने से अगर युद्ध जीता जा सकता  है तो भी...
कोई भी युद्ध मर जाने के बाद नहीं जीता जाता.

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

पास्ट-परफेक्ट, प्रेजेंट-टेंस

वो क्रांतियों के दिन थे.
और हम,
मार दिए जाने तक जिया करते थे.
सिक्कों में चमक थी.
उंगलियाँ थक जाने के बाद चटकती भी थीं.
हवाएं बहती थीं,
और उसमें पसीने की गंध थी.
पथरीले रास्तों में भी छालों की गिनतियाँ रोज़ होती थी.
रोटियां,
तोड़के के खाए जाने के लिए हुआ करती थीं.
रात बहुत ज्यादा काली थी,
जिसमें,
सोने भर की जगह शेष थी.
और सपने डराते भी थे.
अस्तु डर जाने से प्रेम स्व-जनित था.
संगीत नर्क में बजने वाले किसी दूर के ढोल सरीखा था.
हमें अपनी गुलामी चुनने की स्वतंत्रता थी.

 
"Portrait of Jacqueline", a 1961 Picasso painting.

ये अब हुआ है,
सभी डराने वाली चीज़ें लगभग लुप्त हो चुकी हैं...
...डायनासौर, सपने, प्रेम.
हवाओं ने 'बनना' शुरू कर दिया है.
और खुश्बुओं की साजिश,
झुठला देती हैं,
मेहनत के किसी भी प्रमाण को.
बाजारों में सजी हुई है रोटियाँ और,
रात के चेहरे में
'गोरा करने वाली क्रीम' की तरह,
पुत चुकी है निओन-लाईट.
इस तरह.
सोने भर की जगह में किया गया अतिक्रमण.

यूँ तो इस दौर में...
मरने का  इंतज़ार,
एक आलसी विलासिता है.
पर,  स्वर्ग की सीढ़ी यहीं कहीं से हो के जाती है.
...यकीनन हम स्वर्ग-च्युत शापित शरीर हैं.
और शांति...
एक 'बलात' आज़ादी.

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

कविता उम्मीद से है !

डायटिंग और कैरियर के चक्कर में 'वात्सल्य रस' सूख के काँटा हुआ जाता है, 'करुणा' ने एकता कपूर के सीरियल निर्देशित करने शुरू कर दिए,श्रृंगार ने 'दिल्ली-कांड' वाले एम्. एम्. एस. के बाद आत्महत्या कर ली,वियोग दंगों में फ़ना हुआ,'वीर रस' वाली अफगानिस्तान का दौरा कर के आयी है,खिन्नचित्त है ! कविताओं का 'प्रेम रस' किसी गर्भनिरोधक-उत्पाद की टैग लाइन है अब.'वीभत्स रस' से जितनी कविता हो सकती थी,लिख दी गयी है.और इस तरह,कविता का सब कुछ लुट जाने के बाद एक दिन उसे ड्रग्स की लत लग गयी... पागल हो गयी... गालियाँ देने लगी... अपनी गेयता की सारी नजाकत और शिष्टता छोड़ दी.... अपने फ़ेलुन फ़ाईलुन के कपडे फाड़ डाले... अब सुना है वो,अलंकारों के सारे जेवर बेच के राजमा चावल खाती है... बीडी पीती है... एक अजीब से नाम वाले रस 'अवसाद' के साथ अनैतिक सम्बन्ध हैं उसके.....
...लो,
...वो पगली फिर उम्मीद से है !


कविता:
कविता,
मुहावरों में ऊँटों के मार दिए जाने का कारण जानने की 'उत्कंठा' है.
कविता जीरा है...
..जब वो भूख से मरते हैं.
अन्यथा,
पहाड़.

पहाड़...
...चूँकि खोदे जा चुके हैं,
...गिराए जा चुके हैं, ऊँटों के ऊपर.
इसलिए दिख जाती है,
पर समझी नहीं जा सकती.
'कविता लुप्त हुई लिपि का जीवाश्म है.'

पहाड़ खोद के चूहे निकाले जाते हैं,
और, खाया जाता है.
उन चूहों के खाए जा चुकने के बाद...
'आत्म -ग्लानी का मक्का' है कविता.
(कविता पड़ी रहती है...
उदास,
क्यूंकि वो अपने गिरेबान में झांकती है.)

उसके सरोकारों को कोढ़ कहा गया.
जब उसने अंधे की आँख बननी चाही,
अब बस वो राम के बगल में बैठी रहती है,
किसी बाँझ, लड़ाकू मुद्दे सी.
कविता...
पड़ी रहती है,
थक के,
चूर चूर.
...कुत्तों की पूंछ सीधी करने के बाद.

वो घबराती है वहाँ जाने में,
जहाँ,
नौ मन तेल होता है.
बस पड़ी रहती है...
राधा के उतारे जा चुके कपड़ों के बीच में,
इज्ज़त और आत्म सम्मान सी.

क्षेपक

कविता ज़ेहन में अचानक रिंग टोन सी नहीं बज सकती,
क्यूंकि उसका अस्तित्व 'शब्द' है.
वो ज़ेहन में पड़ी रहती है अब बस....
अनरीड मेसेज की तरह कभी डिलीट कर दिए जाने के लिए.

रविवार, 15 अगस्त 2010

रिविज़न ज़िन्दगी

और सुनो...
इसे रिविज़न ज़िन्दगी कहते हैं,
जिसकी लत   मर जाने से भी अच्छी है...
जिसकी सिहरन कब्रिस्तान !
...उंघती हुई मक्खियों के बीच भकोसना...
मोमोज़, आंसू वाली चटनी के साथ.
कुछ सोचने में याददाश्त का गुम ही रहना.
खूब सारी शराब पीकर...
खून की उल्टियाँ करना.
और पेट के हर निचोड़ में,
आँखें बाहर आते हुए देखना...
सिगरेट के इतने लम्बे कश खींचना कि,
दर्द तड़प के माफ़ी मांगे...
"स्मोकिंग किल्स...
...टाइम !!"
अफ़सोस कि हम सृष्टि के सबसे शांत समय में पैदा  हुए.
कुछ न हो पाने की वजह से आत्महत्या कर लेना.
ऐसे ही फॉर अ चेंज !
"४ वर्ष के गुड लक के लिए २० लोगों को फोरवर्ड करें." 

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

प्रेम कवितायेँ

विश्व की अभिशप्त प्रेमिकाओं !
हम जल्द ही लिखेंगे तुम्हारे लिए...
'प्रेम कवितायेँ'.

जब,
बौद्धिकता के ऊसर खेत में,
मृत इतिहास के उर्वरक से पोषित,
'पालतू खरपतवार'
के बीच में से ही कोई,
'जंगली फूल' पल्लवित होगा.
जब,
'प्रेम' और 'कविता' का,
कोई भी यौगिक...
खालिस 'प्रेम कविता' होगा.
जब,
'लज्जा' और 'कौमार्यता'...
जैसे शब्दों के,
पुल्लिंग गढ़े जा चुके होंगे.
जब,
एकलव्य और अंगुली-माल के,
अनैतिक सम्बन्ध...
...समाप्त होंगे.
और जब,
लाल स्याही ख़त्म हो चुकी होगी,
 मेगी कि आराधना (लिओनार्डो डा विन्ची ) - यूफिजी, फ्लोरेंस

तब,
सरोकारों को मृत्यु दंड देके,
हम,अपनी कलम की नोक तोड़ देंगे.
हाँ  तब,
हे, विश्व की अभिशप्त प्रेमिकाओं !
हम लिखेंगे तुम्हारे लिए...

...आखिर प्रेम कवितायेँ तो 'टूटी कलम' से भी लिखी जा सकती हैं.

मंगलवार, 4 मई 2010

एक साम्प्रदायिक कविता

मैं हिन्दू हूँ
मैं मुस्लिम से नफरत करता हूँ.
मैं सिखों से भी नफरत करता हूँ,
मुस्लिम और सिख एक दूसरे से नफरत करते हैं,
दुश्मन का दुश्मन, 'दोस्त' होता है,
दोस्त का दुश्मन, 'दुश्मन' ,
इस तरह,
मैं हिन्दुओं से भी नफरत करता हूँ.
दुनियाँ की महान नफरतों,
...अफ़सोस !!
तुम्हारे कारण....

मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है.

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

२८ साल

उम्र के इस पड़ाव में,
जब आपकी जी हुई ज़िन्दगी दुनियाँ के लिए 'कुछ नहीं' सी है,
बेशक दुनियाँ से आपको (कम के कम इस वक्त तक तो) कोई सरोकार नहीं (था).
तब बैठ जाते हैं,
एकांत में आप.



ये अंतस का एकांत...
अनेक के बीच स्वेच्छा का एकांत...
(सनद रहे, स्वेच्छाएं अत्यंत सीमित हैं अब आपकी.)
ऑफिस में रेनोल्ड्स पेन के बगल में पड़ा एकांत,
घर में चलते हुए डी. वी. डी. के नीचे छुपा के रखा गया एक रुपये के सिक्के सा एकांत.
भीड़ में किसी जानने वाले की जान बूझ के दी गयी टक्कर को  'भाई सा'ब माफ़ करना' कहकर आगे बढ़ जाने सा एकांत.
'उसकी' आँखों में उभर आई उदासी को पोछते हुए उसके होंठ चूम लेने का कामुक एकांत.
वो एकांत जो आवश्यक है आपकी मुट्ठियों का खिंचाव बढ़ाने के लिए.
वो एकांत जो ज़रूरी है किसी ज़रूरी कागज़ को इतने टुकड़ों में फाड़ने के लिए,
कि हर हिस्से में बस एक शब्द आये,
'प्रेम', 'भविष्य', 'सपने', 'इश्वर'.
और ये सब एक एक कर...
लगभग एक साथ...
कूड़ेदान में फैंक दी जाएँ...

सपने देख चुकने और जाग जाने के बीच की ये उम्र...
ये उम्र,
जब सारे युद्ध ख़त्म हो गए,
जीत और हार की वजह से नहीं...
थक जाने की वजह से.


बीमारियाँ,
'संवेदनाओं के बुके' की हद तक पहुंचा के वापिस आ जाती हैं.
ये उम्र जब,
'तेरी माँ की...' कहके आप ठहाके लगा के हँसते नहीं,
गलियां भी अब स्ट्रेस बस्टर हैं बस.

उम्र के इस पड़ाव में,
सोच जिहादी नहीं सूफियाना हो जाती है....
...क्यूंकि 'क'* से शुरू होने वाले सवाल उगने लगते हैं.

______________________
*कब, क्यूँ, कहाँ, कैसे, आदि.

मंगलवार, 9 मार्च 2010

ऑफिस - ओ... फिश !!

(इस प्रेम कहानी में लड़की पाकिस्तान नहीं रहती है, लड़का गरीब नहीं है, दोनों के बीच जात-पात का भी कोई बंधन भी नहीं है, प्रेम त्रिकोण,चतुष्कोण भी नहीं है क्यूंकि अनंत कोण अगर हो जायें तो वृत्त बन जाता है, कहानी का कोई स्थूल खलनायक भी नहीं है, और प्रेमिका के भाई भी जिम नहीं जाते हैं.ये सपाट सी बोरिंग वास्तविक-सामयिक  प्रेम कहानी है. जिसका सामयिक-पन 'टाइम -प्रूफ' नहीं है और  जिसका वास्तव-पन एकाकी न हो के अलग अलग लोगों ने अलग अलग टुकड़ों में जिया है.आप अपना टुकड़ा स्वेच्छा से चुन सकते हैं.या बिना चुने भी रसस्वादन कर सकते हैं. )




जब १५ मिनट की ब्रेक हुई तो वो मुझे माचिस का  इंतज़ार करते हुए मिली...
"एक्सक्यूज़ मी लाइटर होगा आपके पास?"
उसने अपने कानों से आई पॉड के हेड सेट हटा के धीर से अपनी लो-वेस्ट जींस की जेब में खोंस लिए.मैंने अपनी जली हुई सिगरेट बिना कुछ बोले उसके हाथों में थमा दी, जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे.
नोट: लेखक का उद्देश्य कहानी को सेनसेशनल बनाने का (कतई नहीं)  है !
बहरहाल. फिर सिगरेट मुझे वापिस कर दी गयी. अभी उसने सर हल्का नीचे करके बालों को हटा के एक तरफ के कान में अपना हेड सेट डाला ही था कि मैं पूछ बैठा,
'एक्सक्यूज़ मी! व्हिच सॉन्ग?'
मेरे इस अप्रत्याशित से प्रश्न से वो मूर्त सी हो गयी और सेंडिल से ऑफिस की ग्लेज़्ड धरती को एक निश्चित ताल पे थपथापना भी रुक गया उसका...
"हं आ..."
और फिर उसने हल्की सी (हल्की सी का अर्थ सोफेसटीकेटेड लिया जाये) लेक्मे या शायद मेबिलिन मुस्कान (या मेबी शी इस बोर्न विथ इट) से उत्तर दिया...
"एकोन."
"लोनली?"
"न न परेंट्स के साथ रहती हूँ."
"नहीं मेरा मतलब गाना?"
"ओह... अच्छा !"

जो दूसरा वाला हेड सेट था कॉटन-बड की तरह मेरे कान में खुद ही डाल दिया उसने . कितने धीरे से नजदीक आई थी वो.
उसके कांटेक्ट लेन्सेस के अन्दर से झांकती आँखें किसी इनकमिंग मेल की तरह चमक रही थी, उसके होंठ यूँ लगते थे मानो मैक-डी का म्योनिस. सर ऊपर करके पतला सा स्त्रियोचित धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था.
'ब्लेम ओन मी' , किसी आंग्ल ट्रांस भजन की तरह , मेरे कानों में मोनो इफेक्ट के साथ गूँज रहा था. 'अल्ट्रा माएल्ड्स' को आधी पी के ही अपनी सेंडिल से बुझा दी उसने और शिष्टाचार की पराकाष्ठा तब हुई जब उसने दूसरा हेड सेट भी " ओ नो ! गोट्टा गो!!!" कह के अपने कानों से मेरे कानो में लगा दिया. और ८ जी. बी. का आई पॉड मेरे हाथों में थमा दिया.
खट-खट-खट की आवाज़ से धीरे धीरे दौड़ते हुए बोली "अगले ब्रेक में वापिस कर देना."
मेरा एकोन स्टीरियो हो गया !
अगले ब्रेक में पहचान लूँगा उसे? वैसे उसके चेहरे में एक अजीब सी गेयता थी इसलिए उसे याद करने में कोई दिक्कत नहीं हुई.तभी तो किसी अर्धविक्षिप्त दिमाग के खाली कोटरों में चलने वाले अंतर्नाद की तरह उसका सारा 'य मा ता र', 'फेलुन फाएलुन' और 'डा डम' चेतन के शब्दों  से उतर के संगीत की ध्वनियों में बदल गया ,
लेकिन किसी कलापक्ष के रसिक कवि के विरोधाभास अलंकार की तरह उसकी हंसी मुक्त छन्द थी.
मैं अपना ब्रेक एक्सीड कर चुका था.

यदि प्रेम कहानियों का ऍल. सी. ऍम. लिया जाये तो 'प्रेम से पहले की तकरार' भी उत्तर से पहले आई 'कॉमन अविभाजित संख्याओं' में से एक होगी.
वो मुझसे बोलती ऑल मेन आर बास्टेड्स,
और मैं ऑल गर्ल्स आर बिचेज़.
लेकिन बाद में ज्ञात हुआ कि ये वैचारिक-द्वन्द तो महिला बिल को पास न करने को लेकर किये गए गुप्त-समर्थन का 'दर्शित-असमर्थन' सा है.
सच्ची... हमारे विचार बहुत मिलते थे...
एक दिन कहा भी उसने, "मुझे शादी के बंधन  में बंधना पसंद नहीं है, और तुम भी तो यही चाहते हो. हमारे शादी न करने के बारे में विचार कितने मिलते हैं हैं न, और, हमें  ऐसा ही जीवन साथी तो चाहिए जिसके साथ हमारे विचार मिलें.  चलो हम शादी कर लें?"
हम लोगों की खूब बातें होने लगी,
इन्टरनल मेल:
("ब्रेक?",
"५ मि."
"ओकी डोकी"
"चलें अब?")
एस ऍम एस,  क्लोज़्ड यूजर ग्रुप, याहू मेल, वीकडेज़ के लंच ब्रेक, सुट्टा ब्रेक और वीकेंड में पी. वी. आर., अक्षरधाम, सेण्टर स्टेज मॉल उफ्फ..... (कई बातें करना कितना आसान होता है बताना मुश्किल...)


क्रेडिट कार्ड और वोडाफ़ोन के थर्ड पार्टी कलेक्शन डिपार्टमेंट के पत्र-व्यवहारों और फ़ोन से स्पष्ट था कि मैं प्रेम में था.
उसे भी सच में मुझसे प्रेम हो गया था, मेरी ही ख़ातिर तो उसने लोरेल से बालों की स्ट्रेटनिंग कराई थी. और उसकी लो-वेस्ट-जींस भी उतनी लोवेस्ट नहीं रही थी अब. (आखिर प्रेम ही तो स्त्री का प्रथम-कुफ़्र-फल होता है जो उसे लज्जा का आभूषण प्रदान करता है.)
जैसा कि उसने क्रमशः की बातों में बताया था,उसका फिल वक्त कोई बॉय फ्रेंड नहीं था, ५ उसे डिच कर चुके थे, २ से उसने बाकी ५ का प्रतिशोध लिया था.
और मैं उसकी ज़िन्दगी में मोहन राकेश के 'अन्तारल' का कोष्ठक 'भर' था कोष्ठक-भर नहीं.
गीता के विभूतियोग के २१ वें से ४२ वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं उसके प्रेम और उसकी ख़ूबसूरती के ऊपर न्योछावर कर के ढेर सारी कविताएँ लिख डाली थीं.कुछ उपमाएं अपनी मौलिक भी थी जैसे: भ्रष्टाचारों में तुम नेता, मुद्रा में तुम डॉलर (वैसे मेरे भीतर डॉलर और यूरो को लेकर ये कन्फ्यूजन था की ज़्यादा पार्थ  कौन है?) और आतंकवाद में तुम ही लश्कर-ऐ-तैय्यबा हो.
ये सिलसला तब तक चलता रहा जब तक कि आई टी डिपार्टमेंट से चेतावनी की प्रिंटेड हार्ड कॉपी नहीं आ गयी (इ मेल के लिए तो इनबॉक्स फुल था ना !). हमारे रयुमर्स, 'ऑर्गनाइजेशनल कम्यूनिकेशन के प्रकार' इस विषय के  परफेक्ट उद्धरण बन गए थे. ऑफिस मैं हम ब्रह्म की तरह ओमिनीप्रजेंट थे, कॉफ़ी वेंडिंग मशीन के इर्द गिर्द, ट्रेनिंग रूम की पीछे वाली ऊँघती बेंचों में, हर केबिन के फ़ोन में 'ओके बाय' और 'अच्छा एक बात सुनी' के बीच.हमसे  कैफेटेरिया वेंडर भी खुश था.  आजकल उसके कम्पलीमेंट्री सॉस के पाउच जो कम खर्च होते थे. फिर भी उसके स्नेक्स लोग चटखारे लेकर खाते थे.


लेकिन नियति का 'एक्स-बॉक्स' देखो...
जैसा कि मुझ जैसे लेखक की कहानियों, और मुझ जैसे जीव का होता है...
...इस कहानी का भी दुखांत हो गया...
बावज़ूद इसके कि उसे लिव-इन-रिलेशन बहुत पसंद थे(जैसा कि उसने कहा भी था कि एक ही तो रिलेशन है जिसमें लिव यानी ज़िन्दगी है) उसे अमृता प्रीतम प्रभावित नहीं कर पाई,
और हम दोनों ने शादी कर ली.
या अगर सलमान रुश्दी के शब्दों में कहें:
नहीं नहीं ये नहीं चलेगा...
आई नीड टू बी मोर स्पेसिफिक..
'उसने मुझसे शादी कर ली.'

बुधवार, 3 मार्च 2010

आम होने के प्रति...

मैं एक आम आदमी हूँ,
बहुत ज़्यादा आम.

मन जब भी होता है,
ए-४ शीट में...
दुनियाँ के सभी दर्द उकेरने का,
तुम्हारे और मेरे आंसू...
कागज़ गुलाबी बना देते हैं.
मैं एक आम कवि हूँ.

उस लगभग ढहती हुई दिवार से सटाकर...
जब अंगीकार करता हूँ तुम्हें ,
तुम्हारी पीठ से छुप जाती हैं...
हँसिया और हथौड़ा,
मैं एक आम कॉमरेड हूँ.


जब तुम्हें देखता हूँ...
निर्वाणा की शर्ट पहने,
फ्लूरोसेंट ओउम भी दिखता है...
तुम्हारे उभारों में.
मैं एक आम योगी हूँ.

सुहागरात याद आती है...
जब कभी,
क्वांटम थ्योरी की...
एक में से केवल एक ही बिल्ली मरती है,
मैं एक आम वैज्ञानिक हूँ.

जब किसी वैश्या, भिखारी...
या सडती हुई लाश का...
करुण-क्रंदन सुनता हूँ,
तो छुपा लेता हूँ अपने आप को...
तुम्हारे ज़ानों के बीच.
मैं एक आम समाजवादी हूँ.

पीड़ा और आनंद...
दोनों,
तुम्हें पाकर,
एक साथ मिलते हैं यहाँ !
ठीक इसी जगह !!
ब्रेक इवेन पॉइंट !!!
मेरा अर्थशाश्त्र आम है.





युद्ध में,
किसी कलिंग सा हुआ जाता हूँ मैं,
मैं एक आम योद्धा हूँ.
/प्रेम में,
किंचित-वासनामय.
मैं एक आम प्रेमी हूँ.
...और इस तरह,
युद्ध और प्रेम में झूलता,
मेरा इतिहास आम है.




देखो...
कितना आम सा दर्शन है मेरा.
है ना?

...अरे, सच !!
मैं तो,
एक आम आदमी हूँ,
बहुत ज़्यादा आम.

और ये...
'बहुत ज़्यादा' आम होना
'कुछ हद तक' ख़ास बनत है मुझे,
कम से कम...
...तुम्हारी नज़रों में.

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

कवि की अंतिम इच्छा




निकास की देहरी पर बैठी,
रात का,
अलसाई सुबह की प्रथम प्रहर से,
'आलिंगन'
...निषिद्ध हो !

ये,
प्रेमाभिव्यक्ति का समय...
कतई नहीं है .

ये समय बिलकुल ठीक है...

दिलों में उठते कारखानी - धुओं को,
बुझाने वालों,
या...
उसे फूंक फूंक कर,
आँखें धुआंधार करने वालों,
में से,
किसी एक को चुनने का,

भीड़ का हिस्सा बन के,
सामूहिक क्रंदन करने का.
ताकि,
बेशक आवाज़ नहीं.
कम से कम...
शोर तो सुनाई दें,

...ये समय है लहलहाते गाँव के पत्तों का सच जानने का...
टिड्डियाँ हों...
...ताकि कोई 'एक' न दोषी ठहराया जाये .

और अगर व्यक्त होना अश्लीलता है,
तो ये समय है अंतरात्मा के नग्न होने का,
यदि विरोध युद्ध है,
तो ठीक इस समय...
पर कुतर दिए जाने चाहिए पवित्र से पवित्र समर्थन के,

नपुंसकों द्वारा,
सहमति के नाम पे किये गए,
सामूहिक बलात्कार,
और...
बिल्लियों और गीदड़ों की,
पृष्ठ भूमि पर खड़ा,
पुरुष रहित समाजशास्त्र,
यदि शब्दों से और अभिव्यक्ति से कम 'गालियाँ' हैं तो...

कवि तू दोषी है,
अपराध के लिए,
दंड वो देंगे...
जिनके प्रति सरोकार था तेरा.

और उन सरोकारों के एवज़  में,
क़त्ल हो जाने से पहले तक का...
ये समय तेरा है.
...कविता का समय?
मौत का...
और ठीक उसके बाद.




बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

नो हायर रेजल्यूशन अवेलेबल

खोजा गूगल में,
फिर गूगल इमेज़ेस,

अब तुझे ,
ढूँढ रहा हूँ...
गूगल मेप में.


बर्लिन की दिवार,
बाबरी मस्ज़िद का गुम्बद,
बुरका ओढ़े बुद्ध,
किसी 'कथित' तानाशाह की...
कथित मूर्त आत्मश्लाघा
कोई तेल का कुआँ,
मोहनजोदड़ो...
पाकिस्तान वाला भी.
हूवर डेम से पहले की 'लॉस वेगास बाजियाँ',
वो दो गगनचुम्बी इमारतें...
जिसकी सबसे ऊंची मंजिल से...
सभ्यता पूरी दिखती है...
लेकिन...
साफ़ नहीं.

ओ बेवकूफ इंसान,
जामवंत-हीन.
मैं तुझे ढूँढ रहा हूँ,
अब तक...

भूकंप बिन बताए आते हैं,
इसलिए तू भी पूजने योग्य है.

साले !!
अपना कॉपी राईट  करा ले,
कल तुझ जैसे बनना चाहेंगे कुछ,
और तब...
इश्वर से ज़्यादा क्लिक्स,
तेरे हों.

अबे आदमी !!
तेरी इमेज़ को,
इन्लार्ज़ करा के,
प्रिंट स्क्रीन लेना चाहता हूँ,
तेरी वर्चुअल आरती करना चाहता हूँ,
या कोई 'जागर'
सर को गोल गोल घुमा के...

क्रेडिट कार्ड से तुझे भोग लगाऊंगा,
ऑनलाइन.

मैं रिफ्रेश का बटन दबाता हूँ,
पांच बार बैक करके.

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

संवेदनहीनता

वो,
अपने सर को खुजाती.
बारी बारी
अपने दोनों हाथों से.

उसके मुख से,
सुनी थी भद्दी गालियाँ,
शायद,
उनकी कोई...
'सामायिक सार्थकता'
हो?

गोद में पकड़े...
अबोध जीवन,
नंगा अबोध जीवन

नहीं,
नग्न कहाँ था वो?
पहन रक्खे थे,
उसने,
काले कपड़े.

इसमें...
और,
महाराष्ट्र के चुनाव में,
क्या सम्बन्ध हो सकता है?

नही सोचता हूँ मैं.

पकड़ा देता हूँ उसे,
दस का नोट.

ये 'गाँधी' भी,
उससे खर्च हो जाने हैं.
हेतु,
एक चाय,
और बासी बंद.

उस फ्लाई ओवर से,
गुज़र जाता हूँ.

...एक
...नही दो आवाजें,
रुदन की.

एक आवाज,
जो अब तक पकी नहीं थी...

मैं?
वापस?
नहीं.
इंडियन आइडल ?
और फिर,
पिज्जा ?

वहीँ से कामना,
........
हे इश्वर...
न हो ये !

...कल के अख़बार में भी,

कुछ न पढूंगा....
पेज थ्री के सिवा.

फिर से,
झुठला दूँगा सत्य.

रविवार, 17 जनवरी 2010

संदूक


आज...
फ़िर,
....
....
उस,
कोने में पड़े,
धूल लगे 'संदूक' को,
हाथों से झाड़ा...

धूल...
...आंखों में चुभ गई .

संदूक का,
कोई 'नाम' नहीं होता.

पर,
इस संदूक में,
एक खुरचा सा 'नाम' था .
....
....
सफ़ेद पेंट से लिखा .

तुम्हारा था?
या मेरा?
पढ़ा नही जाता है अब .

खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही,
बेतरतीब पड़ी थी...
'ज़िन्दगी'

मुझे याद है,
माँ ने,
जन्म दिन में,
'उपहार' में दी थी।

पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है !

पर,
आज भी ,
जब पहन के देखता हूँ,
बड़ी ही लगती है,

शायद...
...कभी फिट आ जाए।

नीचे उसके,
तह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन'

उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख,
कागज़ के रंग,
कुछ कंचे ,
उलझा हुआ मंझा,
और...
....
....
और न जाने क्या क्या ?

कपड़े,
छोटे होते थे बचपन में,
....
....
....जेब बड़ी.

कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये
'इमानदारी',
सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी 'मुफलिसी' के,
और कभी,
'बेचारगी' के .

पर,
इसकी सिलाई,
....
....
उधड गई थी, एक दिन.
...जब,
'भूख' का खूंटा लगा इसमे.

उसको हटाया,
तो नीचे...
पड़ी हुई थी,
'जवानी'.

उसका रंग उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये .

अब पता नहीं ,
कौनसा,
नया रंग हो गया है?

बगल में ही,
पड़ी हुई थी,
'आवारगी'.

....उसमें से,
अब भी,
'शराब' की बू आती है।

४-५,
सफ़ेद,
गोल,
'खुशियों' की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,
संदूक में.

पर वो खुशियाँ...
....
....
.... उड़ गई शायद।

याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था ?

एक जोड़ी,
'वफाएं' खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर,
मुझपे...
.....
.....
ये अच्छी नही लगती।

और फ़िर...
इनका 'फैशन' भी,
...नहीं रहा अब .

...और ये,
शायद...
'मुस्कान' है।

तुम,
कहती थी न...
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी,
दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
....
....
इसको.....
'जमाने'
और
'जिम्मेदारियों'
के बीच रख दिया था ना ।

तब से पेहेनना छोड़ दी।

अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'
'वेल्लेनटें डे ' में,
दिया था तुमने।

दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में,
सिकुड़ जाता था।
भाभी ने बताया भी था,
"इसके लिए,
खारा पानी ख़राब होता है."

पर आखें,
आँखें  ये न जानती थी।

चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल साफ़,
नाप भी बिल्कुल सही.

लगता था,
जैसे,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से
कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर .

चलो,
आज...
फ़िर,
....
....
इसे ही,
पहन लेता हूँ .

शनिवार, 16 जनवरी 2010

...मुझपे उधार रहे.

आज कुछ रिश्तों से पुराना हिसाब हो , चलो !!

प्रिये ,मैं आज वापिस करता हूँ तुम्हारी 'एक आंसू' की मुस्कान ,
दे दो तुम भी मुझे मेरे बालों से बनी गोल -गोल अंगूठियाँ
तुम्हारी हर बात की चिंगोटीयाँ मगर उधार रही .

दोस्त,वो रंगीन महफिलें याद हैं मैंने तुम्हें दी थी?
क्या तुम अपने कंधो में रखे हाथ से बदलोगे ?
मगर तुम्हारी सिगरेट के ३ कश फिर भी मुझपे उधार रहे.


माँ, क्या लौटाओगी मुझे वो गीली रातें ?
ले सकती हो तुम मेरा सब कुछ, सब कुछ...
फिर भी, तुम्हारा गीला आँचल मुझपर उधार रहा.


बहना तेरी गुडिया जो छुपाई थी मैंने, अभी भी वहीं हैं शायद,
पर पहले वो "पानी के बुलबुलों की मछली " दे !!
हाँ मगर, वो संतेरे वाली हाथ के पसीने से काली हुई टॉफी मुझपर उधाररही .

पिताजी , लौटाना चाहता हूँ तुम्हारे संस्कार .
हर एक गोद की सवारी से बदलकर ,
तुम्हरी ऊँगली में मेरी उँगलियों का घेरा उधार रहा.


इश्वर ,अगर कुछ पुन्य पाप के बही खाते में से बचे,
मेरी अद्वैत आत्मा ले लो,और बस , बस !
वो "योगभ्रष्ट " मन कैसे दूं तुम्हें ? हाँ, उधार रहा.


कह दो इ स मकां से कि अपनी छत ले ले और,
लौटा दे मेरा बंजारापन .
यादों की खिड़कियाँ मुझपे उधार रही.


फलक , मेरे मुट्ठी में बंद चाँद तारे चाहिए तो,
मेरा छोटा सा आकाश का हिस्सा मुझे वापिस दे दो.
सपनों का इन्द्रधनुष मुझ पे उधार रहा.


ज़िन्दगी अपनी सारी यादें ले लो ,
उन पुराने लम्हों को दे दो बस ,
साँसों का सिलसिला? चलो , उधार रहा.


दर्द तुम्हें लौटाता हूँ में सारा सुकूं ,
हर तड़पती नस मुझे वापिस चाहिए.
हाँ मगर, तुमसे पैदा 'ये नज़्म' उधार रही ........


इसलिए ये नज़्म ... .
...."लिख रहा हूँ ...."
. .. हिसाब में!
शायद कभी चूका पाऊँ ?
किश्तों में...