निकास की देहरी पर बैठी,
रात का,
अलसाई सुबह की प्रथम प्रहर से,
'आलिंगन'
...निषिद्ध हो !
ये,
प्रेमाभिव्यक्ति का समय...
कतई नहीं है .
ये समय बिलकुल ठीक है...
दिलों में उठते कारखानी - धुओं को,
बुझाने वालों,
या...
उसे फूंक फूंक कर,
आँखें धुआंधार करने वालों,
में से,
किसी एक को चुनने का,
भीड़ का हिस्सा बन के,
सामूहिक क्रंदन करने का.
ताकि,
बेशक आवाज़ नहीं.
कम से कम...
शोर तो सुनाई दें,...ये समय है लहलहाते गाँव के पत्तों का सच जानने का...
टिड्डियाँ हों...
...ताकि कोई 'एक' न दोषी ठहराया जाये .
तो ये समय है अंतरात्मा के नग्न होने का,
यदि विरोध युद्ध है,
तो ठीक इस समय...
पर कुतर दिए जाने चाहिए पवित्र से पवित्र समर्थन के,
नपुंसकों द्वारा,
सहमति के नाम पे किये गए,
सामूहिक बलात्कार,
और...
बिल्लियों और गीदड़ों की,
पृष्ठ भूमि पर खड़ा,
पुरुष रहित समाजशास्त्र,
यदि शब्दों से और अभिव्यक्ति से कम 'गालियाँ' हैं तो...
कवि तू दोषी है,
अपराध के लिए,
दंड वो देंगे...
जिनके प्रति सरोकार था तेरा.
और उन सरोकारों के एवज़ में,
क़त्ल हो जाने से पहले तक का...
ये समय तेरा है.
...कविता का समय?
मौत का...
और ठीक उसके बाद.
निशब्द
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी भी कितनी लम्बी होती है ना??
जवाब देंहटाएंउम्र भर चलती है...
एक हीं जिन्दगी में क्लाइमेक्स और एंटी क्लाइमेक्स दोनों...
पहली कविता में वर्तमान समय कि नपुंसकता पर कवि का आक्रोश झलकता है तो दूसरी में ..जहाँ तक मैं समझ सका..मछलियों के रूप में आदमी के चरित्र पर व्यंग्य है कि मछलियाँ फसंती ही नहीं फिसलती भी है ..जब अपने पर बीतती है तब अच्छा नहीं लगता.
जवाब देंहटाएं..शेष आप बेहतर बता सकते हैं कि क्या कहना चाहते हैं..!
क्या बात है मियाँ !
जवाब देंहटाएं...ये समय है लहलहाते गाँव के पत्तों का सच जानने का...
जवाब देंहटाएंटिड्डियाँ हों...
...ताकि कोई 'एक' न दोषी ठहराया जाये .
लहलहाते गाँव, जिन्हें टिड्डियाँ चाट रही हैं...आज भी और पाश के समय में भी...है ना?
और अगर व्यक्त होना अश्लीलता है,
जवाब देंहटाएंतो ये समय है अंतरात्मा के नग्न होने का,
जादू भरे शब्द है, दर्पण!
"दर्पण, आपकी टिप्पणी भी उतनी ही अद्भुत है जितनी आपकी कविताएँ
जवाब देंहटाएं.."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
दोनों ही रचनाएँ मुग्ध और निःशब्द करने वाली हैं...
जवाब देंहटाएंलाजवाब ....सिम्पली ग्रेट....वाह !!!
Waav...Machliya...aur kya ishara....superb!
जवाब देंहटाएंक्या बात है..जबरदस्त!
जवाब देंहटाएंक्लाइमेक्स और एंटी क्लाइमेक्स के बीच यह तस्वीर किसकी है ?
जवाब देंहटाएंआपकी तो नहीं ?
इतना अच्छा कैसे लिख लेते है आप I सुन्दर I
इतना अच्छा कैसे लिख लेते हैं आप। कई बार आपकी इस टिप्पणी बाक्स में पढने को मिला है। अब फर्ज़ बनता है कि बता ही दो।
जवाब देंहटाएंजो कहना है चिठ्ठाचर्चा पर कह दिया है... यहाँ तारीफ नहीं ऑफिस टाइम में सिगरेट मन है ना ?
जवाब देंहटाएंहमें अपूर्व का thankful होना चाहिए नहीं ? यह हिंदी.कॉम कैसे लगाया, मुझे भी लगाना है .
हाँ पहली कविता हद है... पाश के पाश से कोई कैसे बच सकता है?कुछ खतरे उठाने होंगे और यही उम्र है, दियासलाई खोजने की
दूसरी समझदार.
निःशब्द
जवाब देंहटाएंस्तब्ध
जड़ .....
बस इससे ज़्यादा कुछ कहने की स्थिति में नही ..........
निःशब्द
जवाब देंहटाएंऔर अगर व्यक्त होना अश्लीलता है,
जवाब देंहटाएंतो ये समय है अंतरात्मा के नग्न होने का,
Bahut khoob!
aaj ki dono hi rachnayein adbhut hain..........kavi ka krandan bahut hi satik tarike se pesh kiya hai aur doosri rachna to samaaj ka aaina hai.
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ एक तो बहुत दिनों बाद आना हुआ आपके ब्लोग पर रचनाए पढकर नि:शब्द हूँ।
जवाब देंहटाएंदोनों ही बहुत अच्छी रचनाएँ हैं.
जवाब देंहटाएंसही है डियर, यह जहर २४ घंटे मे ही असर दिखाता है, पता न था..और असर भी तो कैसा...काश कि मैं कुछ कहने लायक होता..और फिर इस पुरुषरहित समाजशास्त्र की तल्खी....हाँ दूसरी कविता थोड़ा और वक्त मांगती है..सो ’मिनिमाइज’ कर के रखा है इसे..दोबारा के लिये..काफ़ी कुछ बाकी है अभी..
जवाब देंहटाएं..और ब्लॉग का यह नया कलेवर..काफ़ी दिलकश लग रहा है अभी तो..:-)
जवाब देंहटाएंहाँ यह कयामत की तारीख कैसे मुल्तवी हुई है? ;-)
जवाब देंहटाएंजैसे किताबे छाँटते हुए कोई पुरानी किताब हाथ लग गयी हो और जिसमे किसी भूली बिसरी क्रांति का ज़िकर हो.
जवाब देंहटाएंऐसी ही लगी ये रचना.
जैसे किसी के सपने को छू के देखने की कोशिश हो कोई.
ये नज़्म किसी इक जुबान या कौम को belong नहीं करती.
मुक्त है हर हदबंदी से.
इक सोच है,चेतनता है,बेकरारी भी है और चैन भी.
गुलज़ार की इक नज़म का टुकड़ा..
उस बार कुछ ऐसा हुआ,
क्रांति का अशव तो निकला था,
पर थमने वाला कोई न था,
जाबाजों के लश्कर पहुंचे मगर,
सालारने वाला कोई न था.
आज हैरान कम हूँ..
जवाब देंहटाएंपरेशान ज़्यादा....
Holi kee anek shubhkamnayen!
जवाब देंहटाएं"होली की ढेर सारी शुभकामनाएँ......."
जवाब देंहटाएंप्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.
shandar rachna abhivyakti
जवाब देंहटाएंरंग लेकर के आई है तुम्हारे द्वार पर टोली
उमंगें ले हवाओं में खड़ी है सामने होली
निकलो बाहं फैलाये अंक में प्रीत को भर लो
हारने दिल खड़े है हम जीत को आज तुम वर लो
मधुर उल्लास की थिरकन में आके शामिल हो जाओ
लिए शुभ कामना आयी है देखो द्वार पर होली
aap ki kavitayen utkrast evm jan sadharan ke dard ka pritbimb hai. meri bahut shubhkamnayen.
जवाब देंहटाएंkrapaya mera bhi blogger pr aspandan blogg dekhey. aapke sujav humeyn protsahit karenge.
dhanyavad.
मैं कवि नहीं हूँ
जवाब देंहटाएंमैं कवि नहीं हूँ,
क्योंकि कोई भी गुण
नहीं है हमारे अन्दर
जो होता है,
एक कवि में.
न तो दिखने में ही
कवि लगता हूँ,
और कवियो वाली पोशाक भी
नहीं पहनता.
फिर भी न जाने क्यों?
ऐसा लगता है,
दिल के कोई कोने में,
छुपा है.....
मेरा कवि मन.
जो चाहता है,
मुझे कवि बनाना.
उसके अन्दर दृढ इच्छा है,
कठोर परिश्रम है,
जो बदल देगा,
मेरा बजूद.
हाँ देखना एक दिन
वह जरुर बदल देगा,
और ला खड़ा करेगा,
मुझे........
भविष्य में कभी
कवियों की लम्बी लाईन में
विद्रोह के स्वर बौद्धिकता के संस्पर्श से प्रखर,आपकी कविता बहुत मुखर !
जवाब देंहटाएं.