मंगलवार, 4 मई 2010

एक साम्प्रदायिक कविता

मैं हिन्दू हूँ
मैं मुस्लिम से नफरत करता हूँ.
मैं सिखों से भी नफरत करता हूँ,
मुस्लिम और सिख एक दूसरे से नफरत करते हैं,
दुश्मन का दुश्मन, 'दोस्त' होता है,
दोस्त का दुश्मन, 'दुश्मन' ,
इस तरह,
मैं हिन्दुओं से भी नफरत करता हूँ.
दुनियाँ की महान नफरतों,
...अफ़सोस !!
तुम्हारे कारण....

मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है.

39 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे याद है वो, हुआ ही नहीं जो,
    ये झूठी हक़ीकत, ये सच्ची तमन्ना.

    खुदाया मुकम्मिल कहीं हो न जाये.
    हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना?

    बहुत ख़ूब...

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  2. शोक! महाशोक! नफरतों के लिए कि वे महरूम हैं प्रेम से.."

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  3. ओह दर्पण! क्या गज़ब लिख रहे हो..
    हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना? क्या बात है..

    साम्प्रदायिक अपने चरम पर है..

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  4. .अफ़सोस !!
    तुम्हारी वजह से,
    मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है.
    bahut khoob........sach aaj prem sirf kitabi lafz ban kar rah gaya.

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  5. मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है....बहुत ख़ूब...

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  6. बहुत बढिया प्रस्तुति।बधाई।

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  7. Bahut hi lajawab prastuti
    Bair karate mandir masjid mel karati madhushala.

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  8. अफ़सोस !!
    तुम्हारी वजह से,
    मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है.
    Kaash yah sach na hota!

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  9. ओह, नफरत से नफरत नहीं की जा सकती?

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  10. दुनियाँ की महान नफरतों,
    ...अफ़सोस !!
    तुम्हारी वजह से,
    मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है


    -कविता और गज़ल..दोनों लाजबाब! बधाई.

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  11. प्रिय भाई दर्पण साह'दर्शन'जी ,

    भुजंगप्रयात छंद की, बह्रे-मुतक़ारिब में प्रस्तुत इस मुकम्मल ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !
    जवां दिलों की धड़कनों को छूते प्यारे मिसरे हैं…
    "कोई ख्वाहिशों पे ना परदे लगाये,
    दुपट्टे के पीछे मचलती तमन्ना "
    "मेरी कैफ़ियत हैं, या चेहरा तुम्हारा?
    गुलाबी कभी, लाल होती तमन्ना "

    यह शे'र भी ख़ास पसंद आया …
    "चलो साग़रो को नया नाम दे दें.
    नशा,दर्द,चाहत,कहानी,तमन्ना "
    आपका फ़न और क़लम का उरूज नित नई बुलंदियां छुए !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  12. मुझे याद है वो, हुआ ही नहीं जो,
    ये झूठी हक़ीकत, ये सच्ची तमन्ना.
    और फिर गैर साम्प्रदायिक मकसद से रची रचना
    वाह

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  13. मुझे याद है वो, हुआ ही नहीं जो,
    ये झूठी हक़ीकत, ये सच्ची तमन्ना.

    खुदाया मुकम्मिल कहीं हो न जाये.
    हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना?

    बहुत खूब ..........

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  14. सुन्दर रचना ,इससे प्रेम मत ख़त्म नहीं होने दीजिये ....

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  15. गजल तो कमाल लिखे हो राईटर!
    सिर्फ कहने के लिए नहीं...एक दम सही में राईटर!

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  16. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  17. "खिले दिल, धड़कते गुलों सी तमन्ना"

    वाकई ये तो बडी नयी तमन्ना है जो मेरे सर के बालो के नीचे रखा दिल, हमेशा सीने मे रखे दिमाग को समझाया करता है..

    "खुदाया मुकम्मिल कहीं हो न जाये.
    हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना?"

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  18. "खुदाया मुकम्मिल कहीं हो न जाये.
    हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना?"

    वाह.. जबरदस्त..

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  19. कुछ यूँ दाखिल हुई यह पोस्ट गोया कि काकटेल बना दी हो..ग़ज़ल के शींरी स्वाद को इस कविता की तल्ख तासीर मे मिला कर..बड़ा अलहदा किस्म का ’टच’ आ गया पोस्ट मे..दोनो को एक साथ पढ़ कर..वैसे मेरे खयाल से तो दोनो ही अलग-अलग तश्तरियों मे रख कर पेश करे जाने लायक थीं..ऐसे आपस मे घुल मिल जाती हैं थोड़ी..खैर..
    कविता लाइट मूड मे खुद पर इतना तंज किस्म का व्यंग्य कसती है कि जेहन के गाल से तमाचे की आवाज आ जाती है..मेरी एक मुँहबोली माँ ने सिखाया था कि इस ’नफ़रत’ लफ़्ज़ को बातचीत मे कभी इस्तेमाल नही करने का..और उस वक्त मुझे समझ आया था कि कुछ नादान से दिखने वाले शब्द कैसे हमारी जिंदगी के पोस्टर का सारा स्पेस अनजाने ही घेर लेते हैं..बात रिलीजन पर ही खत्म नही होती..प्यार और नफ़रत दोनों ही हमेशा अपने पनपने-फ़ूलने-फ़लने के सबसे सहल बहाने खुद खोज लेते हैं..और यहाँ पर ’महान’ नफ़रतें इस महानता की परिभाषा की असमर्थता को ही व्यक्त करती हैं...
    गज़ल पर कुछ कहना मेरी अपनी अल्पज्ञता की नुमाइश ही होगा..सो इस आखिरी लाइन की जुगाली करते हुए वक्त काटना चाहता हूँ
    हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना?

    वैसे इसकी साफ़बयानीं मुझे भी गुस्ताख होने का इन्विटेशन देती हुई महसूस होती है..सो क्या फ़र्क पड़ता है अगर मैं भी कह दूँ कि..

    फ़कत धौंकनी, हर नफ़स ज़िंदगी है
    जिगर जलता कोयला, अंगीठी तमन्ना
    :-)

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  20. कोई ख्वाहिशों पे ना परदे लगाये,
    दुपट्टे के पीछे मचलती तमन्ना.

    चलो साग़रो को नया नाम दे दें.
    नशा, दर्द, चाहत, कहानी, तमन्ना.

    गजल + कविता = लाजवाब :)

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  21. मैं तो गिलहरी की तमन्ना में ही खो गया.

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  22. अपूर्व का अर्थ जानते हैं आप दर्पण? शायद आपको पता हो फिर भी मैं अपने तरीके से बताता हूँ... जो 'पूर्व में कह गए हों.. इनका कहा देख कर आप मूल मुद्दा भूल जाते हैं और इनके कहे पर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं... यह भी भूल जाते हैं की आपको क्या कहना था और अंत में इन्ही का कहा हुआ चेप देते हैं... सो यहाँ भी मेरी ओर से वही समझा जाये

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  23. यूँ तो सभी ने सभी कुछ कह ही दिया है,( गिलहरी की creativity को छोड़ के )सुबह के उजाले सी मन्त्र मुग्द करने वाली ग़ज़ल(उजाला मांगे का नहीं है)
    ऐसा मालूम होता है शे'र नहीं परिओ के झुण्ड जादुई वातावरण में उड़ने में मस्त है,इंद्र धुनष के प्रतिरूपक बादलो से सबरंगी बारिश हो रही है.
    कल्पना और शिल्प के जौहर से मासूम जज़्बातों को हसीन आकार दिया है.ग़ज़ल के लिए बढ़िया अभिवियक्ति बधाई.

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  24. एक साम्प्रदायिक कविता - ये नफ़रतें मामूली नहीं,जानलेवा है,दिल दहला देने वाली इन नफ़रतों का इलाज़ सोचना चाहिए.
    अफ़सोस !!
    तुम्हारी वजह से,
    मेरी कविता में 'प्रेम' कहीं नहीं है.
    कविता में कोई सवाल नहीं पूछा गया फिर भी सवाल पूछती सी मालूम होती है...

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  25. भाई कमाल की ग़ज़ल लिखी है ... मज़ा आ गया .. बहुत दीनो बाद इस फन में वापस आए हो ....
    और सांप्रदायिक कविता ... इसका तो जवाब नही है ... छलनी कर गयी ...

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  26. पहली बार आया आपने ब्लॉग पर ...आकर ख़ुशी हुई ..परन्तु कुछ अफ़सोस अब तक जो दूर था ..बहुत ही अच्छा लिखते हू...दोनों रचनाए अच्छी है

    http://athaah.blogspot.com/

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  27. ' हुई गर जो पूरी तो कैसी तमन्ना?'


    - सही कहा .तमन्ना का अस्तित्व तो पूरी होने तक ही है. सुन्दर.

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  28. हम अपने पहले कमेन्ट पर घर में डांट खा चुके है .....

    अब और दूसरा कमेन्ट देने कि हिम्मत नहीं हो रही है...

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  29. उठाई है तलवार फूलों की खातिर.
    वगरना कहाँ 'सरफरोशी -तमन्ना'
    अच्छी लगी पंक्तियां !!!!!!!!

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  30. उफ़्फ़्फ़ ये ग़ज़ल....इस बहर पे इतनी खूबसूरत ग़ज़ल शायद इससे पहले मीर ने ही लिखी होगी। अभी नीचे वाली कविता पे नहीं जा रहा। उसके लिये अलग से आना पड़ेगा।

    इस ग़ज़ल पे जितनी दाद दूं. कम होगी।
    चलो सागरों को नया नाम वाला शेर मेरा फ़ेवरिट...लेकिन हासिले-ग़ज़ल शेर तो सरफ़रोशी तमन्ना वाला है।

    हैरान हूँ कि मुफ़लिस जी इसे अब तक देखा नहीं?

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  31. हैरान हूँ कि मुफ़लिस जी इसे अब तक देखा नहीं?




    aap kyun hairaan hain...??

    hairaan to hame honaa chaahiye...

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  32. कोई ख्वाहिशों पे ना परदे लगाये,
    दुपट्टे के पीछे मचलती तमन्ना.

    मेरी कैफ़ियत हैं, या चेहरा तुम्हारा?
    गुलाबी कभी, लाल होती तमन्ना.

    ऐसे दिल-फरेब अश`आर मेरी नज़रों से ओझल रह गए
    ये मेरी ही कम-नसीबी का नतीजा है
    हर शेर अवध के नव्वाब शायरों की ग़ज़लों की याद
    ताज़ा करवा रहा है ....
    और मीर साहब खुद सुनते/पढ़ते तो जल-भुन जाते
    लेकिन,,, हाँ ....अदम साहब की याद तो दिला ही दी है दर्पण मियाँ ने
    और जब ये शेर सामने आता है ...
    खुदाया मुकम्मिल कहीं हो न जाये.
    हुई गर जो पूरी, तो कैसी तमन्ना?
    तो जी चाहता है ...
    किसी और के हक़ का 'ज़रा-सा हिस्सा' मांग लूं
    दर्पण का हाथ चूम लूं . . . . .

    खुश रहो

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  33. बेनामी18 जून, 2010 15:33

    yaar Darpan,

    bahane kam nahi hote...
    ghazal pasand aayee...

    ghasalon mein aur bhi hai sukhanvar
    achchhe-achchee, par dushyant kumar ke
    baad tumne sach mein prabhavit kiya...

    balki kahoon to tumhein padhkar aatma prasanna huee...28 saal ke ho tum aur aage bhi ashaein hai tum se. apna vikash zari rakhiye...sundartam pardarshita hai qalam mein...bahane kam nahi hote, sachche se motiyon si ghazal hai...abhivyakti mein tum bhi jhalakte ho...

    ek dost GGS(e.mail-id:ggshgs@gmail.com)

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  34. Apoorv ji ne jo upar kaha...use 55 din baad fir se copy kiya jaaye :)

    subhanallah

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  35. 'darpan' kabhi jhooth nahin bolta . aaj bhi sach hi kaha hai

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  36. नफ़रत की कविता में ही प्रेम के बीज निहित हैं ....
    जब सक कुछ नफ़रत ही नफ़रत होगा तो नफ़रत भी तो प्रेम ही होगा ...

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'ज़िन्दगी' भी कितनी लम्बी होती है ना??
'ज़िन्दगी' भर चलती है...