रविवार, 23 अक्तूबर 2011

...हेंगओवर अनप्लग्ड !

उन कुछ गिने चुने लोगों के लिए

दोस्तों,
हम अलग तरह के लोग हैं,
समाज 'को' बहिष्कृत किये हुए.
चिर निद्रा में हैं,
स्वप्न में, जो वास्तविकता से अधिक सत्य हैं.
एक ही समय में वक्त से इतने पीछे और इतने आगे,
कि हमेशा समकालीन.
विरह की विरचना के लिए प्रेम करने वाले.
इतने आत्मकेंद्रित कि बीसियों बार 'सर्वे भवन्तुः सुखिनः' का जाप करने वाले.
इतने दोगले कि दोनों पक्षों के विश्वास पात्र.
हम बस सोचने वाले लोग हैं,
कर कुछ नहीं सकते हम.
इसलिए सोचते हैं,"करने से क्या हो जाएगा?"
हर संभव चीज़ को इतना असंभव किये हुए हैं हम अपने लिए कि,
असंभव भी 'बस' संभव के समतुल्य ही असंभव है हमारे लिए.
हमारे विचार पैराडॉक्स से उत्पन्न लोजिक हैं.
चीजों के इस हद तक विरोधी, इतने रिबेलियन कि,
हर चीज़ की सुन्दरता 'एज़-इट-इज़' में स्वीकार्य है हमें.
इतने बंधनों में कि पूर्णतया मुक्त.
जीत जाने को इतने उत्सुक कि हर हार के बाद भी अति उत्साहित.
(इतने ज़्यादा हतोत्साहित कि, हमेशा उत्साह से भरे हुए.)
इतने डरे हुए कि, निडर.
हर इन्सान में कोई ना कोई खूबी होती है,
हमारी खूबी है कि हम रो सकते हैं 'ख़ुशी-ख़ुशी'
दोस्तों,
हम अलग तरह के लोग हैं,
कि हम मृत्यु से पहले मर चुके है कई बार,
इसलिए आनंद में हैं जीवन के.



इशिहारा टेस्ट: यदि आपको उल्लिखित कविता में ढेर सारे विरोधाभास दिखते हैं तो खुश हो जाइए कि आप अब्नोर्मल नहीं हैं.

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

अवसाद का डाटा-बेस

12-08-2011
तुमको (तुम्हारे लिए नहीं) कुछ प्रेम कवितायें लिखनी थीं, पर जो मेरी मौलिक होनी थीं वो तो पहले ही लिखी जा चुकी हैं.
"तुमको चाँद सा कहना, तुमको चाँद कहना, तुमको चाँद ना कहना, चाँद को तुमसा कहना, चाँद को तुम कहना, तुमको चाँद से बढ़कर कहना..."
अच्छा क्या ये भी कहा जा चुका है की "चाँद बस तुमसे थोड़ा ही ज़्यादा खूबसूरत है?"
"मुझे भूल जाना, मुझे याद रखना, मैं वापिस आऊंगा, मैं वापिस नहीं आऊंगा, तुम बुलाओगी तो मैं सात समन्दर पार से भी आ जाऊँगा, तुम बुलाओगी तो भी मैं नहीं आऊंगा."
मुझे तो ये भी लगता है कि शायद ये भी पहले कोई कह चुका है "बुला के देखना पर पहले भूला के देखना."
...हो सकता है, हो सकता है क्या यकीनन कई नई सारी बातें प्रेम में कहनी बाकी हैं अभी. पर 'प्रेम' ना बदला है ना बदलेगा, प्रेम वही है...
वही...
...वो, पुराना वाला !
कितनी अच्छी बात है ना?
मैं नहीं जानता कि 'आई लव यू' को कितने अलग तरीकों से, कितनी अलग भाषाओं कितनी अलग बोलियों में कहा जा सकता है. एक गाना था, फ़िर एक फोरवरडेड मेल भी . और ये दोनों बातें तुम्हें पहली बार 'आई लव यू' कहने से पहले की हैं.
लेकिन  जैसे वो 'एफ. आई. आर.' धारावाहिक की लड़की यूनिफ़ॉर्म में ही सबसे बेस्ट लगती है, वैसे ही (मुझे) आई लव यू, 'आई लव यू' में ही बेस्ट लगता है.
आरती का मतलब जानती हो? पूरी पूजा में जो भी त्रुटियाँ रह जाती हैं,उनका भू.चू.ले.दे., पूजा की कोई विधी ना जानूं जैसा कुछ..
आई लव यू दरअसल नायिका की आरती है.
तुम कहती हो कवि होकर प्रेम कवितायें तो छोड़ो प्रेम के दो शब्द नहीं लिख सकते?
ओ पागली ! ये प्रेम करने की उम्र है, लिखने की नहीं. उसके लिए 'खुशवन्त सिंह', 'गुलज़ार' और 'जावेद अख्तर' हैं ना...
कई लेखक बड़े 'जेनुएन' होते हैं, अपनी आप बीती अपनी मनः स्थिति लिखते हैं, अपना जिया लिखते हैं, पर कुछ लेखक मुखौटा धारी होते हैं, नकली, दोगले मेरी तरह. अगर मैं  लेखक हूँ तो. (वैसे तुम कहती हो मुझे 'लेखक' मैं तो मानता भी नहीं.)
अभी प्रेम कवितायें लिखने से इसलिए भी कतराता हूँ कि अगर आपनी कविता की नायिका के होठों, केशों या बाहों से थोड़ी इधर उधर भटका तो लोगों को लगेगा (मुझे लगेगा कि लोगों को लग रहा है, क्यूंकि ये सच है/होगा) कि वो नायिका तुम हो.

I don't want anybody to think about you in the samy way as I do, Rather I don't want to think that somebody is thinking about you in the same way as I do.

तुम कहती हो तुम नहीं होगी तो मैं प्रेम कवितायें अच्छी लिखूंगा. मैं कहता हूँ, "ग़लत" !
क्यूंकि जब तुम नहीं होगी तब भी प्रेम तो होगा ही. हाँ एक वक्त ऐसा आएगा कि मैं प्रेम से विरक्त  हो जाऊँगा(उस विरक्ति के लिए बुढ़ापा जरूरी नहीं बता दूं तुम्हें). तब शायद....
...यानी जब भी तुम्हें लगे कि मैं प्रेम कवितायें अच्छी लिख रहा हूँ  तो जान जाना जानाँ की मेरे जीवन में अब प्रेम कहीं नहीं है.

अभी तो मुझे क्रांतियों के बारे में लिखने दो, क्यूंकि मुझे रोड क्रॉस करने का फोबिया है.
अभी मुझे उस गरीब भिखारी बच्चे के बारे में लिख लेने दो, क्यूंकि मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सकता. (घृणित है पर लेट मी एक्सेप्ट 'करना भी नहीं चाहता.')
अभी मुझे आत्महत्या का मनोविज्ञान पे 'थोथा चना' लेख लिख लेने दो, लिख लेने दो मुझे 'मोक्ष प्राप्ति' कि विधियां, क्यूंकि मुझे तैंतीस करोड़ योनियों में भटकना ही है.
लिख लेने दो मुझे इतिहास क्यूंकि वो बदला नहीं जा सकता, लिख लेने दो मुझे भविष्य क्यूंकि वो यक़ीनन वैसा नहीं होगा जैसा मैं लिखूंगा. मुझसे वर्तमान लिखने को मत कहो प्लीज़...
जी लेने दो मुझे वर्तमान, कर लेने दो मुझे प्रेम.
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पुनःश्च आई लव यू !



13-08-2011
तुम्हारा थक जाना,
मेरी हार में हुए सत्यापित हस्ताक्षर हैं.
हार जाने,
और हार स्वीकार कर लेने में,
तुम्हारे थक जाने का अंतर है.



14-08-2011
ये पन्ने इन शब्दों के लिखे जाने से पहले खाली थे,
इनपे कुछ और भी लिखा जा सकता था,
बिल्कुल अलहदा...
राशन का सामान,
महीने का हिसाब,
और लिखी जा सकती थी इनमें कविता.


15-05-2011
गल्तियाँ तुम्हारी होतीं तो तुम्हें अपनाना,
इक एहसास-ए-सुकून-ए-एहसान होता,
पर मेरा कितना बड़ा दिल है देखो,
मैं अपनी गल्तियों के बावजूद,
तुम्हें अपनाना चाहता हूँ.
बॉल इज़ इन यौर कोर्ट नाऊ...


16-05-2011
अच्छा साहित्य 'आपदाओं' की नहीं, 'संगठित आपदाओं' की देन है, क्यूंकि वो 'सर्वजन दुखाय' है.
बिहार एक संपन्न राज्य है जिसमें गरीब लोग रहते हैं, उसी तरह ये समय सृष्टि के प्रारब्ध से अब तक का सबसे शान्त समय है जिसमें कुछ छोटे छोटे एक्सट्रीम विभत्स पल हैं, सृष्टि के प्रारब्ध से अब तक के...
और उनकी संख्या लाखों करोड़ों में है,
'फूट डालो राज्य करो' का ग्राफ देखा है?
दो में बाटों, चार में, सोलह, चौसठ.... ....लाख, करोड़ और...
...राज करना और आसान...
और आसान.
आश्चर्य जनक रूप से फूट भी दुखों में पड़ी है, और राज भी दुःख कर रहे हैं.
दर्द, दुःख,अवसाद सबको है किन्तु एकाकी....
साहित्य की पेंसिलीन, 'दंगों', 'क्रांतियों' और 'वैश्विक-परिवर्तनों' के लिए है.
इसलिए अभी तो 'डिस्प्रीन','क्रोसीन','इनो','पुदिन-हरा' जैसे विचार,लेख,कहानियाँ,कवितायें हैं बस.
हाँ, कुछ रूमानी गीतों,गजलों की 'स्लीपिंग-पिल्स' भी.
ये सब जरूरी हैं, ये सब समय की मांग हैं, 'मुन्नी' , 'शीला' और 'रज़ियाओं' के 'पेन किलर' की तो सबसे ज़्यादा.
अभी आवश्यक है बहुत कुछ लिखा जाना, आईटमाइज्ड पर टेलर मेड.
स्पेक्ट्रम विशाल है अवसादों का, इसलिए कोम्पेक्ट कम.
वोल्यूम इज़ इन्वर्सली प्रपोश्न्ल टू डेंसिटी.
किसी एक्सटेंडेड वीकेंड में मिनियापोलिस या बाल्टीमोर के अपने सब-अर्ब घर के बैकयार्ड में चिकन बार्बैक्यु करते इन्सान के दुःख किसी सामान्य परिस्थिति में ठीक उतने ही लगते हैं जितने रोहतक बाई पास के किसी ढाबे में बैठे, बारह घंटे ट्रक चलाने के बाद बुनी हुई चारपाई में 'नारंगी' पीते, मुर्गा फाड़ते इन्सान के.
ठीक बराबर, दशमलव के चार स्थानों तक शुद्ध नापने के बाद भी. पर इकाई अलग है और इसलिए रिलेट नहीं हो पाते. दुखों की इक्वेशन में एक दूसरे को एक्स आउट नहीं कर सकते.
इसलिए जब कहानी लिखने की सोचता हूँ तो फंस जाता हूँ, परेशानियों के पंचतंत्र में, अवसादों के अलिफ़ लैला में.
और अन्त में अपने अवसादों के बारे में लिखकर सो जाता हूँ या सोने की कोशिश करता हूँ. हाँ हाँ में मतलबी हो गया हूँ, पर मतलबी होकर भी खुश नहीं हूँ, भगवान कसम.
बहरहाल....
"सर्वे भवन्तु सुखिना."

गुरुवार, 23 जून 2011

लाइफ इन अ मेट्रो : माइग्रेन

रात शब्द वाकई डरवाना है,
जिसकी परिभाषा में,
बिल्लियाँ लड़ने के लिए बदनाम हैं,
और शियार रोने के लिए बने हैं.
इसमें 'रहस्य' और 'जंगल' के प्रेम सम्बन्ध सी वर्जना है
लेकिन फिर भी मैं इसे आपसे बांटना पसंद नहीं करता.
उफ्फ्फ !
माफ़ कीजिये पर...
आपके 'हस्तक्षेप' का शोर सन्नाटे से ज्यादा खतरनाक है.
स्लीपिंग पिल्स ३ गली छोड़ के मिलती है.
देशी शराब ४...
और मौत...
...टक्कर* पे.

मेरे एक अज़ीज़ मित्र 'ग़ालिब' ने तिलमिला कर गजलें-गाना बंद कर दिया है.
"दिल्ली में रहें गायेंगे क्या?"
(इस दर्द को ग़ज़ल की भी पनाह नहीं मिलती.)
यीट्स बावनवें पन्ने में खाली हुई डिस्प्रिन के स्ट्रिप्स का बुकमार्क लगा के सो गया है.
ताजमहल का नक्शा खो जाने की स्थिति में सनद रहे शिल्पकार के हाथ कटे हुए हैं.
नींद से पहले के 'दो घंटों के उमस भरे रंग' मोनालिसा की प्रेतात्मा को जीवंत कर उठे हैं.
अमीर खुसरो का ध्यान भंग हो रहा है...
"चल खुसरो घर आपने रैन 'नहीं' इस देश."
ऐसा ही रहा तो पानीपत की लड़ाई में 'लो-ब्लड-प्रेशर' जीत जायेगा.
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*टक्कर = दिल्ली में टी-पॉइंट को टक्कर भी कहते हैं.



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सोमवार, 13 जून 2011

अपराध और दंडहीनता


मुझे विश्वास है
एक दिन हमारे सभी अपराध क्षम्य होंगे
अपराधों की बढ़ती गहनता के कारण.
और ऐसा
किसी बड़ी लकीर के खींच दिए जाने सरीखा होगा.
हमारे द्वारा किये गए सामूहिक नरसंहार
क्षम्य होंगे !
किसी 'फ्रेशर' के ए. सी. रूम में लिए गए,
'ब्रेन-स्टोर्मिंग' इंटरव्यू से तुलनात्मक अध्ययन के बाद.
निश्चित ही,
'उफनते उत्साह' के उन कुछ सालों में,
पूरी एक पीढ़ी को,
घेर-घेर के हतोत्साहित किया जाना
सबसे बड़ा पाप है,
नरसंहार 'साली' क्या चीज़ है !

क़यामत के समय
बख्श दिए जायेंगे हमारे 'डकैती' और 'चोरी' के
सभी सफल/असफल प्रयास.
क्यूंकि ईश्वर व्यस्त होगा
कुछ उससे आवश्यक,
बहुत आवश्यक निर्णयों को एग्ज़ीक्यूट करने में.
मसलन...
पादरियों,पंडितों और शेखों को
जलती कढ़ाई में झोंक देने का निर्णय.
मसलन...
राजनेताओं, वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों को
उल्टा लटका देने का निर्णय.
मसलन...
न्यायधीशों को...


...ख़ैर छोड़िये !
और ज़ाम का दौर शुरू करिए
क्यूंकि मैं जानता हूँ,
हम सारे नशेडियों को तो
बस एक ही दंड में नाप दिया जाएगा.
दंड बस दस कोड़ों का...
..या बहुत से बहुत बीस !

रविवार, 9 जनवरी 2011

डिवाइन कॉन्सपिरेसी

हमें वही चीज़ नहीं करने को कही गयी,
जो हमें वाकई नहीं करनी थी.
'लालच','उत्सुकता' और 'धृष्टता' कमजोरियां थीं.
फ़िर भी ये 'प्रथम फल' खाने से पहले कैसे पैदा हुई हममें?
इश्वर तेरे षड़यंत्र के शिकार हम,
हमारी शुरुआत ही गलत करवाई गयी.

हम सबसे पहले जान लेना चाहते थे धूप उगाना,
पर हमें सबसे पहले ये बताया गया कि धूप,
आसमान में ही उग सकती है.
एक नामुमकिन सी जगह.

कहीं उड़ने को हम उड़न तश्तरी ना बना लें,
तब तुमने , ओ इश्वर,
हमें पकड़ा दिया 'झुनझुना'
हमें बता दी पत्थर से आग बनाने की विधी.
और तब हमने उगाये  खेतों में पत्थर.
और यूँ आग के आविष्कार के चक्कर में,
हम पिछड़ गए उड़न तश्तरी बनाने को,
धूप उगाने को.

और जब हम ऊब जाने की हद तक,
आग जलाने के अभ्यस्त हुए,
हमें बताया गया आग और स्वाद का सम्बन्ध.
तब तक पत्थर भी घीसे ही जा चुके थे,
उनके नुकीले-पन ने हमें शाकाहारी नहीं रहने दिया.
लेकिन फ़िर भी पत्थर बहुत थे,
और ज़्यादातर नुकीले.
अस्तु...
कबीले बने, देश बने...
राजा, महाराजा...
ऍम. डी., सी. ई. ओ. ...
हम भी इश्वर बन सकते थे,
पर हमें भुलवा दिया गया,
हम भी इश्वर बन सकते हैं,
उड़न तश्तरी बना सकते हैं,
धूप उगा सकते हैं.


जब हमें यकीन हो आया कि धरती के दो छोर हैं,
जहाँ से कूद से आकाश में पंहुचा जा सकता है,
तेरे पैगम्बरों ने घोषणा करी कि दुनिया गोल है...
कुछ लोग विश्वास भी कर गए,
और तब से ही दुनिया गोल है.

एक दिन सबको पता लगा कि आकाश जैसी कोई चीज़ नहीं,
तब से,
हाँ ठीक तब से, कुछ ना होना आकाश हो गया.
उफ्फ...


तुझे मुसलसल हमारे सपनों से डर लगता रहा,
हम तेरी चाल समझते जा रहे थे,
तू और चालाक होता जा रहा था.
और यूँ,
जब हम साथ में मिलकर,
बना सकते थे उड़न तश्तरी,
उगा सकते थे धूप.
तुमने अपने पैगम्बर भेज के हम सब में फूट डाल दी.
"वैज्ञानिक."

न्यूटन !
था तो पहले वो भी इन्सान,
पर तुमने ही उससे कहा कि जाओ,
बताओ...
हम सब धरती से चिपके हुए हैं.
और उसके कहने के बाद से हम देखो वाकई धरती से चिपके हुए हैं.

आइन्स्टीन !
तुमने ही बताया उसे...
और हमें उसने...
कि हम कोई भी चीज़ उगा नहीं सकते,
पैदा नहीं कर सकते,
और तब से कुछ भी पैदा नहीं होता इस धरती में.
(कभी उड़ती खबर आई थी दो ढाई हज़ार साल पहले कि तू पैदा हुआ है.)


भांडा तो तेरा,इश्वर...
लिओनार्डो ने फोड़ना चाहा था,
तभी तेरे गुर्गों ने उसे चित्रकार घोषित कर दिया...
'चित्रकार' हंह !


ठीक उस वक्त,
हमारी सच्चाइयों को सब कल्पना कहने लगे.....
हम कभी भविष्य में पढ़ा जाने वाला इतिहास हो गए,
तेरी साजिश के शिकार हम,
हम लेखक, कवि, चित्रकार.

क्या ये सच नहीं कि शब्दों से
'उ-ड़-न-त-श्त-री' बनाना,
हम कबके सीख चुके थे.
इतना तो मानते हो ना तुम कि,
कविताओं में उगा भी ली थी धूप?
और हाँ,
चित्रकार पैदा कर चुके थे कई सारे सूरज,
बचपन से ही,
आँख, नाक और हँसते हुए सूरज,
ठीक उड़ती चार चिड़ियों के पास.

इश्वर यकीन करो,
हम नंगे रहकर भी,
बिना पका खाकर भी,
बिना किसी 'कोर्पोरेट - हयार्की' के,
बिना देश और कबीलों के 'वैलिड पासपोर्ट' के,
बिना रिलेटिविटी के सिद्धान्त के,
और गुरुत्वाकर्षण के बावजूद,
बना सकते थे 'उड़न तश्तरी',
उगा सकते थे 'धूप'.