शनिवार, 16 नवंबर 2013

निःशब्द का अरण्य


शब्द
ऐसे छूते हैं सत्य
जैसे कोई शहर छूता हो जंगल
अपनी पूर्णता से पहले
बहुत दूर तक चलते हैं
शहर और जंगल साथ साथ
बहुत देर तक रहता है
सत्य में शब्दों का हस्तक्षेप
घनी आबादी से निकल चुकने पर भी
कहना मुश्किल है
कौन सा घर अंतिम घर होगा
किस कुएं के बाद
कोई दूसरा कोई कुआँ न मिलेगा
क्या होगा अंतिम परिचित दृश्य
मुश्किल है कहना
कौनसी कविता
होगी अंतिम कविता

1 टिप्पणी:

  1. today .... मंगलवार 31/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी एक नज़र देखें
    धन्यवाद .... आभार

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'ज़िन्दगी' भी कितनी लम्बी होती है ना??
'ज़िन्दगी' भर चलती है...