शनिवार, 16 नवंबर 2013

पियूष मिश्रा को सुनते हुए

चलो भागो यहाँ से
मेरे पास तुमको देने को
स्वर्णिम भविष्य नहीं
कोई ऐसा सपना भी नहीं
कि तुमको चाँद में रोटी नज़र न आए
न मैं आत्मविश्वास के साथ कर सकता हूँ
सुहानी सुबह के झूठे वादे
क्यूँकि तुम फिर अपनी
कातर आँखों, अंदर धंसे पेट और जुड़े हुए हाथों से
बंजर शब्दों में एक और उम्मीद की फसल पैदा करने में सफल हो जाओगे
ज़िंदा बचे रहने की आशा फिर तुम्हें जिलाए रक्खेगी
जिससे होगा ये
मृत्यु को हरा चुकने के बावज़ूद
तुम दोगे उसे अभयदान
तो नहीं
आज रात भी मेरे पास तुम्हारे वास्ते
'सच में' कुछ नहीं
बस इस कविता के सिवा
जिसे आधी आधी बाँट सकते हैं हम
क्यूँकि तुम्हारा पता नहीं
पर मैं भूखे नहीं सो सकता





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'ज़िन्दगी' भी कितनी लम्बी होती है ना??
'ज़िन्दगी' भर चलती है...